छन्द संसार
दोहे
तपने लगी वसुंधरा, करती करुण पुकार।
यह विकास का पथ नहीं, है विनाश का द्वार।।
भारत माँ का ताज है, गरिमा है कश्मीर।
आह! मगर ये हो गया, नफ़रत की प्राचीर।।
जिस घर में होता नहीं, नारी का सम्मान।
देवी पूजन व्यर्थ है, व्यर्थ वहाँ सब दान।।
नारे, भाषण, चुटकुले, जुमले, भ्रष्ट-बयान।
नेताओं की हैं यही, पाँच प्रमुख पहचान।।
सोच-समझकर कीजिए, प्रेम नहीं आसान।
तन, मन, धन सबका यहाँ, करना पड़ता दान।।
प्रेम अनूठा है बड़ा, प्रेम अजब संयोग।
वही दवा भी प्रेम की, जिससे मिलता रोग।।
सपने में अक्सर दिखे, मुझको मेरा गाँव।
कहता तुझ बिन है यहाँ, सूनी पीपल-छाँव।।
मिल सकती है शक्ति से, धन, जागीर अपार।
लेकिन केवल प्रेम से, मिले हृदय का प्यार।।
गुब्बारे-सा फूलकर, जो पाले अभिमान।
उनको तिनका भी करे, पल में लहूलुहान।।
जो अंदर से खोखला, क्या बाँटेगा प्रीत।
बुझे दिये से नव दिया, जला कहाँ है मीत।।
– गरिमा सक्सेना