छन्द-संसार
दोहे
तलवों नीचे राख है, हाथों में अंगार।
आगत बड़ा उदास है, वर्तमान लाचार।।
दल शिकारियों का जुटा, कर डाला आखेट।
शरशैया पर भीष्म की, भाँति गये हम लेट।।
पड़ जाए यदि सामने, जाहिल और जलील।
जला लीजिए मौन की, छोटी-सी कंदील।।
भले आज सब ठीक है, लेकिन कल की सोच।
क्या जाने कब सोच को, लगे भयंकर मोच।।
संबंधों मे धैर्य की, सीमा हो भरपूर।
होगा वर्ना एक दिन, मनुज मनुज से दूर।।
रहे बनाते आज तक, जो भी तिल का ताड़।
चुहिया तक पाई नहीं, खोदे बहुत पहाड़।।
सपनीली आँखें यही, देख हुयीं हैरान।
सपना छीने एक का, हर दूजा इंसान।।
आसमान में कालिमा, धरती पर कुहराम।
जहर उगलती भोर है, जहर निगलती शाम।।
सागर तट पर सीपियाँ, नदिया के तट मीन।
मानस तट पर कामना, हालत है संगीन।।
रिश्ते अभिशापित हुए, पिसते जाते लोग।
फिर भी फलता फूलता, जीवन का उद्योग।।
आँगन-आँगन नफरतें, द्वारे-द्वारे द्वेष।
अपनापन है लापता, आँसू-आँसू शेष।।
रातें उलझन में पड़ीं, दिन दिन भर बेचैन।
क्या पड़ जाये देखना, आकुल-व्याकुल नैन।।
हुई बहुत विस्तार से, तम से तम की बात।
दिन का उजियारा जहाँ, सृजित वहाँ हो रात।।
हम घाटी में हैं खड़े, तुम पर्वत पर मित्र।
कितना छोटा लग रहा, यार तुम्हारा चित्र।।
– डॉ. अजय प्रसून