छन्द-संसार
दोहे
माँ मन्दिर का दीप है, माँ पूजा का थाल।
जिसे दुआ मिलती रहे, सदा रहे ख़ुशहाल।।
पिता आप शीतल हवा, पिता आप वट वृक्ष।
है विराट क़द आपका, कौन टिके समकक्ष?
बेटी माँ से कह रही, यह कैसा इंसाफ़!
मुझ पर सौ बंधन जड़े, भैया को सब माफ़।।
तन से भी गहरे लगें, मन के ऊपर घाव।
नहीं जानती भीड़ ये, जो करती पथराव।।
लिये होंठ सूखे, समय पूछे यही सवाल।
किधर गया, कल था यहाँ पानी वाला ताल।।
बच्चे जल्दी पक रहे, गर्म हुआ परिवेश।
वापस माँगें बालपन, लौटा मेरा देश।।
मँहगाई ने थामकर हाथों में बंदूक।
दुखिया से खुलवा लिया पुरखों का संदूक।।
चला रामधन शहर को, पग-पग उड़ती रेत।
रहे देर तक ताकते, पुरखों वाले खेत।।
भयाक्रांत पीपल खड़ा, डरा-डरा-सा नीम।
नाप-तौल क्यों कर रही, बाबूजी की टीम।।
मिट्टी सोना हो गयी, पाकर तेरा स्वेद।
तुझको मिट्टी ही मिली, हे किसान! है खेद।।
– अशोक अंजुम