छन्द संसार
दोहे
मैंने जो दोहे लिखे, और लिखे जो गीत।
सब कुछ तेरे नाम हैं, ओ! मेरे मनमीत।।
राम तुम्हें तो मिल गये, गद्दी, सेवक, दास।
पर सीता ने उम्र भर, झेला है वनवास।।
दिन भर तपती धूप में, जलते उसके पाँव।
इसीलिए अब सूर्य भी, लगा ढूँढने छाँव।।
तपकर सच की आँच से, झूठ हो गया खाक।
ज़्यादा दिन जमती नहीं, झूठ-मूठ की धाक।।
बरगद, पीपल, आम तक, रक्खे छाँव सहेज।
ओ! परदेशी लौट आ, संदेशा मत भेज।।
जब-जब होती संग तू, और हाथ में हाथ।
झूठ लगे सारा जहां, सच्चा तेरा साथ।।
नैन-नैन से जब मिले, गढ़े नए आयाम।
चाहे राधा-कृष्ण हों, चाहे सीता-राम।।
साजन तो आये नहीं, आया केवल पत्र।
अश्रु जिसे पढ़कर गिरे, यत्र-तत्र-सर्वत्र।।
दृश्य विहंगम हो गया, रक्त सने अख़बार।
आँखें भी करने लगीं, पढ़ने से इंकार।।
इक दिन था ख़ुद को पढ़ा, भ्रम की गाँठें खोल।
तब से मिट्टी लग रहे, ये दोहे अनमोल।।
– अमन चाँदपुरी