दोहे
क्या माली का हो गया, बाग़ों से अनुबंध?
चित्र छपा है फूल का, शीशी में है गंध॥1II
चूल्हे न्यारे हो गये, आँगन में दीवार।
बूढ़ी माँ ने मौन धर, बाँट लिये त्यौहार॥2II
मुल्ला जी देते रहे, पाँचों वक़्त अज़ान।
उस मौला को भा गयी, बच्चे की मुस्कान॥3II
एक तमाशा फिर हुआ, इन दंगों के बाद।
जिनने फूंकी बस्तियाँ, बाँट रहे इमदाद॥4II
कर लो यदि इस दौर की, कुछ शर्तें स्वीकार।
सहज मिलेंगे साथियों, पैसा-कोठी-कार॥5II
गुमटी पर हैं कायदे, ठेले पर हैं रूल।
थोक भाव से बिक रहे, यारों आज उसूल॥6II
मजदूरन की देह को, ताके ठेकेदार।
रूह ढँकेगी बेबसी, कब तक पेट उघार॥7II
एसी कूलर जून में, हरते हैं अवसाद।
बरगद-पीपल गाँव के, आते फिर भी याद॥8II
बरगद-पीपल-नीम की, शीतल गहरी छाँव।
मीठा पानी कूप का, स्वर्ग धरा पर गाँव॥9II
सोच रहा हूँ देर से, हाथ लिये पतवार।
जीवन दरिया रेत का, कैसे होगा पार॥10II
– ख़ुर्शीद खैराड़ी