दोहे
भीनी खुशबू से भरी, प्रियवर की मुस्कान।
देख सलोने श्याम को, जागे हैं अरमान।।
सब में ईश्वर देखिये, मन की आँखें खोल।
मैं मेरी में क्या धरा, तू ही तू ही बोल।।
वाणी ही पहचान है, वाणी में रस घोल।
सुन्दर भावों से सजे, मुख से निकलें बोल।।
नभ में बिखरी चाँदनी, खेल रही है खेल।
कभी अमावस पूर्णिमा, विधि के सारे खेल।।
शर्म, सहजता, शीलता, नारी के श्रृंगार।
चूड़ी, कंगन, बिंदिया, मन में भरते प्यार।।
बिटिया से आंगन सजे, सुन्दर लगता द्वार।
लक्ष्मी का वह रूप है, देती सबको प्यार।।
धीरे-धीरे पग बढ़े, अपनी मंजिल ओर।
मिले नहीं ठहराव से, खुशी भरी नव भोर।।
घूमे पहिया वक्त का , नश्वर दिखे दुखान्त।
समझें मन तो है खुशी, वर्ना सभी अशान्त।।
टुकड़े-टुकड़े दिल हुआ, फोटो बदले फ्रेम।
चाहत के बाजार में ,कहने को है प्रेम।।
– डॉ. पूर्णिमा राय