छन्द-संसार
दोहे
सपनों ने नींदें छलीं, आशा ने विश्वास।
चाह मिलन की हो गयी, मृगमरीचिका प्यास।।
पीड़ा सब की एक-सी, दर्द सभी का एक।
आपस में मिल-बाँट लें, रख कर बुद्धि-विवेक।।
मैं जब भी जाऊँ कहीं, सदा रहो तुम साथ।
सिया तुम्हारी मैं रहूँ, तुम मेरे रघुनाथ।।
पग-पग पर होने लगे, अब केवल अनुबन्ध।
लोगों के व्यवहार से, आती है दुर्गन्ध।।
जीवन में दुख-दर्द का, निश्चित है अवसान।
होता सबका एक दिन, सुन्दर-सुखद विहान।।
ऐसे लोगों से सदा, हो जाओ हुशियार।
मुख से मृदुभाषी रहें , करें पीठ पर वार।।
बात-बात पर क्यों सभी, खींच रहे तलवार।
घृणा, द्वेष सब त्याग कर, करो सभी से प्यार।।
आँखों में आँसू भरे, अन्तर्मन में पीर।
पल-पल तेरी याद प्रिय, रही कलेजा चीर।।
कभी रूप की धूप पर, मत करना अभिमान।
क्या काया का मोल जब, मानस नहीं सुजान।।
चित्तवृत्ति का रोकना, कहलाता है योग ।
पछताता है वो सदा, जिसे भोग का रोग।।
– सुनीता पाण्डेय सुरभि