छंद-संसार
दोहे
प्राणप्रिया की ताड़ना, करती सहज विकास।
हुए अज्ञ से विज्ञ फिर, कविवर तुलसी दास।।
युग निर्माता मानवी, आँगन की मुस्कान।
छीना आज दहेज ने, उसका ही सम्मान।।
बुलबुल विधवा तब हुई, बालक थे जब चार।
मेहनत, साहस, धैर्य से, पाल रही परिवार।।
जीवन का सच है यही, करिये आप कबूल।
ख़ुशबू मानो प्रियतमा, पति को मानो फूल।।
जिसने घर के वास्ते, कर दी जान निसार।
वही वृद्ध माँ हो गयी, अब तो घर पर भार।।
घाट-घाट का जल पिया, बुझी न मन की प्यास।
माँ के चरणों में हुआ, जन्नत का आभास।।
खर्राटे लेता रहा, जब सारा परिवार।
अम्मा की खाँसी बनी, घर की पहरेदार।।
फूलों के इस बाग का, माली रखना ध्यान।
दुष्ट न कोई छीन ले, कलियों की मुस्कान।।
देखी निश्चल प्रेम की, अद्भुत एक मिसाल।
मीरा की हर साँस में, राधा के गोपाल।।
मोबाइल से कट रहे, जसुदा के दिन-रात।
समझेगी कैसे भला, कान्हा के जज़्बात।।
– शिव कुमार दीपक