छन्द-संसार
दोहे
उसके दिल के दर्द को, समझ सकेगा कौन।
जिसकी जीवन भर रही, वाणी बिल्कुल मौन।।
माँ ने जब गिरवी रखे, नई फसल के बीज।
तब भाई लेकर गया, बहना के घर तीज।।
गुड़िया, गुल्लक, गोटियाँ, गजरा, गाँव, गुरूर।
एक लुटेरा ले गया, बस देकर सिंदूर।।
हँसती-गाती लाडली, हुयी अचानक मौन।
जब माँ ने उससे कहा, परसों तेरा गौन।।
नदी पहनकर चूड़ियाँ, छेड़ लहर संगीत।
सन्नाटे में गा रही, पिया मिलन के गीत।।
जहाँ-कहीं नदियाँ हुयीं, सूख-सूख कर रेत।
वहाँ-वहाँ पर चीखते, सूने बंजर खेत।।
जंगल-पर्वत झूमते, मेघ रचाए स्वांग।
शाम तलक शायद भरे, किसी नदी की मांग।।
झरने-सी झरने लगीं, झरकर हुई विलीन।
कीचड़, दलदल में फँसी, नदियाँ समकालीन।।
बे-मन से पीपल खड़ा, किसको देगा छाँव।
सुस्ताने आते नहीं, पायल वाले पाँव।।
गीता जैसी पावनी, नदियों का इतिहास।
वक्त भेजता है उसे, जबरन सागर पास।।
– सत्यशील राम त्रिपाठी