छन्द संसार
दोहे
आँखों में सपने लिए, खोए-खोए लोग।
यह सपने ही है दवा, यह सपने ही रोग।।
करता रहता रोज़ वह, अच्छे दिन की बात।
पर हल्कू के सामने, वही पूस की रात।।
हर मुखड़ा मायूस है, हर दिल है नाशाद।
कुछ कुनबों के फेर में, देश हुआ बर्बाद।।
कहाँ बिताएँ रात हम, कहाँ सुखों की शाम।
यह दुनिया बाज़ार है, नहीं हाथ में दाम।।
जितनी ऊँची चीज़ है, उतना ऊँचा दाम।
वैसा उसको फल मिला, जिसका जैसा काम।।
ढूँढें से मिलते नहीं, मुझको सच्चे लोग।
इस सारे संसार को, लगा झूठ का रोग।।
जो मेरा इतिहास है, वह तेरा इतिहास।
फिर कैसे तू हो गया, हम लोगों में खास।।
इंग्लिश पटरानी बनी, हिन्दी है लाचार।
झेल रही निज देश में, सौतेला व्यवहार।।
घटा सुहानी शाम की, छाई है भरपूर।
कहती है नज़दीक आ, क्यों है मुझसे दूर।।
श्वान, नाग, गिरगिट सदृश, कलयुग के इंसान।
रुपया इनका धर्म है, रुपया ही ईमान।।
वृद्धाश्रम हैं खुल रहे, और रह रहे वृद्ध।
कैसा हुआ विकास है, कैसे हुए समृद्ध।।
करो आज का आज ही, छोड़ो कल की बात।।
किसे पता है कल भला, कैसे हों हालात।।
धन-अर्जन की चाह में, फैला कैसा रोग?
शहर-गाँव में बस रहे, खोए- खोए लोग।।
इस झूठे संसार में, अजब-अजब हैं खेल।
चोर और कानून का, हुआ भीतरी मेल।।
छली गई जनता पुन:, आँखें हैं हैरान।
मंत्री का भत्ता बढ़ा, जनता लहूलुहान।।
जीवन में कल के सदृश, वही पीर-संघर्ष।
फिर कैसे मैं मान लूँ, आया है नव वर्ष।।
तभी पूर्ण होंगे सभी, ‘रूपम’ अपने स्वप्न।
जब हम अपनी हार पर, स्वयं करेंगे प्रश्न।।
हो जातीं हैं डिग्रियाँ, ‘रूपम’ सिर्फ कबाड़।।
अगर आज इस दौर में, कोई नहीं जुगाड़।।
पल भर में ही छोड़ते, दर्द हमारा साथ।
माँ जब सिर पर प्यार से, रखती अपना हाथ।।
चिड़ियों को दाना दिखा, पैर पकड़ता जाल।
लोभ करे संसार में, कुछ ऐसा ही हाल।।
– रूपम झा