छंद-संसार
दोहे
कहने में अब डर लगे, किसको कह दूँ खास।
खण्ड खण्ड होने लगा, इस मन का विश्वास।।
तुमने छल का प्रीत में, ऐसा मारा दंश।
घाव भले भर दे समय, बचा रहेगा अंश।।
रोड़ा ईंटें माँग लीं, इधर-उधर से अन्न।
इसी तरह होती रही, भानुमती सम्पन्न।।
तेरे मन में चोर है, मेरे मन में शाह।
चाहे जितना लूट ले, मुझे नहीं परवाह।।
नेकी के बदले मिला, दुख का एक पहाड़।
देखा है हमने यहाँ, तिल को बनते ताड़।।
दाता तुझसे थी नहीं, मुझको ऐसी आस।
काट परों को तू मुझे, सौंपेगा आकाश।।
आग लगाकर ज़िन्दगी, डाल रही है तेल।
आकर तू भी खेल ले, मेरे दिल से खेल।।
साध नहीं पाये कभी, ऐसा कोई योग।
दिल ही दिल में बैठकर, ठग लेते हैं लोग।।
पैरों में बेड़ी पड़ीं, हाथों में ज़ंजीर।
मन मीलों चलना तुझे, होना नहीं अधीर।।
हँस कर पी अपमान के, कड़वे सारे घूँट।
बैठे करवट कौनसी, यह किस्मत का ऊँट।।
जलते हुए सवाल का, उत्तर देगा कौन।
हल है जिनके पास में, वह साधे हैं मौन।।
– मनोज जैन मधुर