छंद-संसार
दोहे
मौला मैं बस कर सकूँ, इतनी सी पहचान।
कण-कण में देखूँ तुझे, दूर रहे अभिमान।।
तपते रेगिस्तान में,कौन सुनेगा कूक।
कभी-कभी अच्छा लगे, दर्शक रहना मूक।।
काला जादू कर गया, जाने मुझ पर कौन।
तन से मैं भोपाल में, मन में लखनादौन।।
मौसम जब से मारकर, गया समय को मूँठ।
खुशियों का जंगल हुआ, रूखा सूखा ठूँठ।।
झीना पर्दा झूठ का, पड़ा हमारे बीच।
ईश्वर की झूठी कसम, खाते आँखें मीच।।
भ्रम के शर करते रहे, ईश्वर पर संधान।
मुठ्ठी में करने चला, सृष्टा को इंसान।।
अनेकान्त की दृष्टि से, देख जगत का चित्र।
ईश्वर बँटा न आज तक, भ्रमित न होना मित्र।।
आपस में मन कर लिए, हमने मन छत्तीस।
धरती अम्बर छोड़िये, बाँट लिया जगदीश।।
किसने मन में बो दिया, बँटवारे का बीज।
बाँट लिया माँ-बाप को, ईश्वर है क्या चीज।
सबकी अपनी ढपलियाँ, सबके अपने राग।
काम, क्रोध, मद कर रहे, ईश्वर के दो भाग।।
सच की बाँह मरोड़ कर, झूठ हुआ बलवान।
आँख दिखा संसार को, बाँट रहे भगवान।।
स्वार्थसिद्धि का जगत में, साध रहे हैं योग।
कलयुग में भगवान को बाँट रहे हैं लोग।।
– मनोज जैन मधुर