छंद-संसार
दोहे
हे अर्जुन! रणभूमि में, यही तुम्हारा धर्म।
पूरी निष्ठा से करो, केवल अपना कर्म।।
दुनिया की इस भीड़ में, बनता वही नज़ीर।
लिखता अपने हाथ से, जो अपनी तक़दीर।।
मिलता वैसा कर्मफल, जैसा करो प्रयत्न।
घोंघे मिलते घाट पे, गहराई में रत्न।।
ज़्यादा दिन रहता नहीं, नाकामी का दौर।
ढूंढो ख़ुद की ख़ामियाँ, सोचो मत कुछ और।।
गिरा शाख़ से टूटकर, सूखा पत्ता एक।
जीवन की गति देखकर, चिंतित हुआ विवेक।।
छोड़ दिया कुछ सोचकर, मैंने अपना धर्म।
पर उसके भी दीन का, समझ न आया मर्म।।
दुनिया जिनकी ओर से, लेती है मुंह फ़ेर।
प्रभु उसके भी हाथ से, खाते झूठे बैर।।
साबित करता है यही, मरा-मरा का जाप।
श्रद्धा सच्ची हो अगर, धुल जाते हैं पाप।।
नए दौर का आदमी, बदले ऐसे रंग।
क़ाबिलियत को देखकर, गिरगिट भी है दंग।।
कभी किसी सम्मान की, रखी न मन में चाह।
मैंने औरों के लिए, सदा बनाई राह।।
– महेश मनमीत