छन्द-संसार
दोहे
हल-कुदाल की मार सह, देती भू जो अन्न।
कंकरीट से कर रहे, उसको आज विपन्न।।
सूखे नद, झरने, नदी, कुएँ और नलकूप।
चढ़ विकास की सीढ़ियाँ, बदला भू का रूप।।
जंगल का दोहन हुआ, तोड़े गये पहाड़।
इस विकास की दौड़ में, धरती हुई उजाड़।।
रचो वही साहित्य जो, दे जीवन-संदेश।
मन की जो पीड़ा हरे, हरे हृदय का क्लेश।।
सरल-सहज सुग्राह्य हो, लिखो कभी मत क्लिष्ट।
तभी बनोगी ‘माधवी’, रचनाकार विशिष्ट।।
जिनके श्रम पर चल रहा, यह सारा संसार।
बोलो वे मज़दूर क्यों, युग-युग से लाचार।।
कलयुग में जो धूर्त है, कभी न होगा हीन।
कागों के आगे हुए, कोयल के स्वर दीन।।
माना कुछ चीज़ें बुरी, कुछ मन में हैं क्लेश।
मगर भूल अच्छाइयाँ, कहो बुरा मत देश।।
सब में कमियाँ देखती, नज़र तुम्हारी यार।
ज़रा नजरिए पर करो, मन से कभी विचार।।
परिवर्तन होता रहा, बदला है हर दौर।
बच्चों की भी बात पर, करो ‘माधवी’ गौर।।
बचपन था कितना मधुर, चंचल, छल से हीन।
बड़े हुए, पाया बहुत, मगर रहा मन दीन।।
टेढ़े लोगों के लिए, बना हुआ संसार।
सीधे-अच्छे वृक्ष पर, होता पहले वार।।
अवसरवादी हो गये, कलयुग के इंसान।
कौन मुड़ेगा किस तरफ, जाने बस भगवान।।
जब बचपन ही हो गया, है बँधुआ मज़दूर।
होंगे बोलो देश के, तब कैसे दुख दूर।।
प्यार करो तो ‘माधवी’, रखो न मन में भेद।
तन-मन-जीवन वार दो, मगर करो मत खेद।।
कोई करता आरती, कोई पढ़े अज़ान।
मतलब सबका एक ही, विश्व-जनक का ध्यान।।
प्रेम-भाव, करुणा, क्षमा, रखते हैं विद्वान।
ज्ञानी करते हैं नहीं, विद्या पर अभिमान।।
माँ है पहली शिक्षिका, विद्यालय, परिवार।
जहाँ सीखता है मनुज, जीवन का व्यवहार।।
पुस्तक पढ़ना ‘माधवी’, है सत्संग समान।
पुस्तक देती है हमें, सही-गलत का ज्ञान।।
जब पश्चिम में जंतु बन, जीते थे इंसान।
तब से भारत दे रहा, वेद-उपनिषद ज्ञान।।
ख़ुद की जड़ मत काटना, बोना मत विष-बेल।
कटु शब्दों से कब हुआ, दिल से दिल का मेल।।
श्रम जीवन का मूल है, श्रम जीवन-आधार।
श्रमिकों के बल पर टिका, यह सारा संसार।।
– माधवी चौधरी