छन्द-संसार
दोहे
मीठी लोरी नींद की, मीठी थपकी पीठ।
एक दिठौने से हरे, अला-बला की दीठ।।
माँ, पूजा में ज्यों कलश, कुमकुम अक्षत फूल।
धर्म-ध्वजा संवाहिनी, संस्कारों का मूल।।
जगमग-जगमग ज्यों करे, चौबारे का दीप।
जप-तप की माँ सुमरनी, प्रभु के रहे समीप।।
सहकर सर पर धूप ज्यों, बरगद देता छाँव।
माँ की गोदी में वही, चैन पसारे पाँव।।
माँ बनकर जलती रही, घर-चूल्हे की आग।
सुबह-शाम पकते रहे, टिक्कड़ सरसों-साग।।
पढ़ा-लिखा तू पढ़ ज़रा, अनपढ़ की तफ़सील।
अड़ी-लड़ी अँधियार से, माँ बनकर कंदील।।
माँ पढ़ती खामोशियाँ, आँखों के संवाद।
पेशानी की सिलवटें, मन के सब अवसाद।।
दीवाली या दशहरा, पैर छुए कर जोड़।
देती थी कलदार माँ, पल्लू में से छोड़।।
माँ भोजन की थाल पर, आँके मेरी भूख।
कुछ कम खाकर गर उठूँ, वह जाती थी सूख।।
माँ के पावन प्रेम की, कहीं नहीं है नाप।
कितनी पावन गंग है, नाप सके हैं आप?
पर्वत काटें कष्ट के, माँ औ’ गंग समान।
इसीलिए है कीमती, दोनों का अवदान।।
सागर में जा शांत है, गंगाजी का कूच।
रेवा में बह अस्थियाँ, माँ की गईं भरूच*।।
*भरूच= गुजरात राज्य का वह समुद्र तट, जहाँ रेवा (नर्मदा) सागर में मिलती है।
– कुँअर उदयसिंह अनुज