छन्द संसार
दोहे-
कुछ अच्छा करने चलूँ, जब कुछ अच्छा सोच।
क्यों नीयत के पैर में, आ जाती है मोच।।
समझौता थी ज़िन्दगी, जीना था झंझाल।
कर दी आख़िर तंग हो, साँसों ने हड़ताल।।
एक बार मन में कभी, पनप उठा गर नेह।
पड़ी रहेगी वासना, भूल जाओगे देह।।
यूँ ही कब बाज़ार में, लगते ऊँचे दाम।
करने पड़ते हैं मियाँ, बिकने वाले काम।।
बातों बातों में मुझे, कहकर भाईजान।
गरज पड़ी तो कर गया, रिश्ते का सम्मान।।
चाहे कितनी ही रखो, ऊँची अपनी नाक।
इक दिन मिलकर ख़ाक में, होना ही है ख़ाक।।
देखे जब हर ओर ही, उजड़े-उजड़े सीन।
हुई बिचारी आज फिर, धरा बहुत ग़मगीन।।
उड़ते पंछी ने कहा, देख धरा की ओर।
बिन पानी बिन पेड़ के, सूखे जीवन डोर।।
कुटिया महलों से कहे, अपना सीना तान।
तुझमें रहती है बता, मुझ जैसी मुस्कान।।
जबसे हर एहसास के, फिक्स हुए हैं रेट।
अच्छी ख़ासी ज़िन्दगी, हो गयी मटियामेट।।
– के. पी. अनमोल