छन्द-संसार
दोहे-
पंथ निहारे युग गये, मिला न कुछ विश्राम।
मन की शबरी पूछती, कब आएँगे राम।।
ख़ुश रहने का बस यही, हमने किया उपाय।
पढ़ा वेदना का लिखा, आँसू का अध्याय।।
साथ तुम्हारा यदि हमें, मिल जाए ऐ मीत।
क्रूर समय के वक्ष पर, हम लिख देंगे जीत।।
‘बुधुआ’ की आँते धँसी, गया आँख का नूर।
रोटी, छप्पर, बालपन, सब ले गये हुज़ूर।।
कैसे मैं उससे घृणा, करता आख़िरकार।
मोम सरीखा मन रहा, पिघल गया हर बार।।
एक आँख में है लहू, एक आँख में नीर।
आधे-आधे रूप की, यह पूरी तस्वीर।।
अन्तहीन श्रम की कथा, कृषक श्रमिक सश्रद्ध।
हल-कुदाल से खेत में, करता है लिपिबद्ध।।
मन का कबिरा पूछता, प्रतिपल बस यह प्रश्न।
मातम है क्यों मृत्यु पर, और जन्म पर जश्न।।
इस अँधियारी रात में, नहीं सूझती राह।
पर मंज़िल की चाह से, घटा नहीं उत्साह।।
कैसे होगी शान्ति अब, कहाँ लगाएँ ज़ोर।
बन्दूकों की हो रही, खेती चारों ओर।।
घर में हर त्यौहार का, करता कैसे जश्न।
मीलों तक फैला हुआ, था रोटी का प्रश्न।।
धूप और छाया रहे, ‘हँसमुख’ दिन भर साथ।
शाम हुए दोनों विदा, हिला-हिला कर हाथ।।
बहुत उड़े आकाश में, मिला कहीं क्या ठाँव।
अब तो प्यारे लौटकर, आजा अपने गाँव।।
नयी-नयी इस भोर में, कैसा हुआ तिलिस्म।
पत्थर जैसा हो गया, यह शीशे का जिस्म।।
– हँसमुख आर्यावर्ती