छन्द-संसार
दोहे
तपने लगी वसुंधरा, करती करुण पुकार।
यह विकास का पथ नहीं, है विनाश का द्वार।।
नीर-पवन-धरती-गगन, करो प्रदूषण मुक्त।
मानव जीवन के लिए, बस पृथ्वी उपयुक्त।।
पौधारोपण से करो, धरती का श्रृंगार।
धरा-दिवस का अर्थ तब, होगा अंगीकार।।
नदियों के पग काटकर, करने चले विकास।
जल-विद्युत से कब मिटी, गाँव-शहर की प्यास।।
पेड़ों की छाया सघन, शीतल नीर, समीर।
स्वच्छ सादगी गाँव की, हरती मन की पीर।।
साँसें होती जा रहीं, जंगल की नित बंद।
कुदरत और विकास में, छिड़ा हुआ प्रतिद्वंद।।
दम घुटती है वायु की, धुँआ करे आतंक।
शहरी बिच्छू मारता, कुदरत को नित डंक।।
सूखे कोयल का गला, कैसे गाये गान।
दूर-दूर तक जल नहीं, दिखते सिर्फ मकान।।
हाँफ-हाँफ कर शहर में, आहत पड़ा समीर।
चिमनी, वाहन छोड़ते, रोज विषैले तीर।।
प्यासा आँगन का कुआँ, हुई नदी भी रेत।
पेड़ कटे, वर्षा नहीं, सूखे सारे खेत।।
पशु-पक्षी भयभीत हैं, सिमटे जंगल आज।
कंकरीट के दैत्य का, फैला जंगल राज।।
पोखर, नाले कर रहे, नदियों का परिहास।
हम-सी ही मैली हुईं, तुममें अब क्या खास।।
जिस धरती ने दी सदा, मातु सदृश सौगात।
उस पर ही करता रहा, हठी मनुज आघात।।
वृक्ष लगाना मान लो, सबसे सुंदर काज।
तभी सुरक्षित कल यहाँ, जब सुधरेगा आज।।
पानी-पानी हो गया, पानी का किरदार।
दूषित जल पी जब मरे, कल ही बच्चे चार।।
फटी ओढ़नी हो हरी, फिर भू बने निहाल।
हर टुकड़े में टांक दो, हरे पौध की माल।।
मनुज वृक्ष को काटकर, ढूँढे ठंडी छाँव।
स्वयं कुल्हाड़ी मारकर, काटे अपने पाँव।।
– गरिमा सक्सेना