छन्द-संसार
दोहे
बोझा लादे दर्द का, मन का यह मजदूर।
पूछ रहा है जिंदगी, चलना कितनी दूर।।
बचे कहाँ संयुक्त अब, पहले से परिवार।
बालक सीखे ज्ञान की, जिसमें बातें चार।।
दर्द मिला हर साँस को, पग-पग पर थे शूल।
जीवन की इस राह में, भारी पड़े उसूल।।
मैं सहरा की रेत थी, तू दरिया का नीर।
दोनों को ढोनी पड़ी, अपनी अपनी पीर।।
अंधी आँखों में बसा, प्रेम जनित जब नूर।
लगा देखने श्याम को, बिना नेत्र के सूर।।
थका हुआ मजदूर जब, लेटे पीपल छाँव।
सूरज माथा चूमता, हवा दबाती पाँव।।
तन को मीरा कर लिया, मन को किया कबीर।
बची न कोई आस फिर, बची न कोई पीर।।
मुझको ऐसी दृष्टि दे, छलकाए जो प्यार।
भूख, ग़रीबी दर्द को, समझ सकूँ करतार।।
प्रीत जोत कर साँवरे, बोई दिल में पीर।
उपजे फसलें याद की, नैना सींचे नीर।।
उम्र सुराही में भरा, जितना रब ने नीर।
उतना पीकर चल पड़ा, आगे साँस फ़क़ीर।।
मन मीरा तन राधिका, साँसे संत कबीर।
सिवा प्रेम के रख सका, ऐसी कौन नज़ीर।।
– आशा पाण्डे ओझा