छन्द संसार
दोहा छन्द
माँ लोरी है साँझ की, माँ प्रभात का गीत।
गिर-पड़ चलना सीखते, उस छुटपन की मीत।।
कुदरत के वरदान को, रहे देख सब दंग।
माँ चन्दन के पेड़-सी, बेटा भले भुजंग।।
ताँता कष्टों का लगा, कभी न मानी हार।
दिखलाती उनको रही, माँ बाहर का द्वार।।
शीश झुकाकर टाँकती, लुगड़ी में पैबंद।
अनपढ़ अम्मा लिख रही, संघर्षों के छंद।।
माँज-माँज कर ठीकरे, हथली हुई कुरूप।
माँ के मुख छाई रही, मुस्कानों की धूप।।
धुआँ-धुआँ चूल्हा जले, बहे आँख से धार।
फिर भी टिक्कड़ थेपती, माँ कब माने हार।
ओर-छोर अज्ञात है, ऐसा पारावार।
जो डूबा वह तर गया, पा अम्मा का प्यार।।
गरमी में ठण्डी हवा, जाड़े मीठी धूप।
बारिश में छत-सी तने, माँ के कितने रूप।।
बया सरीखी माँ बुने, छोटे-छोटे ख़्वाब।
आना-पाई जोड़कर, रहती ढाँपे आब।।
पूजे पाथर देवता , तब पाए थे पूत।
अब बेटों के बीच में, माता हुई अछूत।।
– कुँअर उदयसिंह अनुज