छन्द-संसार
दोहा छन्द
दिया भूख की हूक ने, उसको ये उपदेश।
जज़्बातों को मारकर, जाना है परदेस।।
महँगे जबसे हो गये, सब्ज़ी रोटी दाल।
पढ़े लिखों ने थाम ली, अपने हाथ कुदाल।।
जिस घर में भी हो गया, गौरैया का वास।
उस घर के वासी कभी, रहते नहीं उदास।।
कहने को तो एक है, मित्रो! मेरा वोट।
फिर भी गोली से अधिक, ये करता है चोट।।
जब फूलों पर छा गयी, मादकता भरपूर।
भौंरे आख़िर क्यों रहें, फिर बसंत से दूर।।
प्रेम पगी हों लाठियाँ, प्रेम पगे हों रंग।
ताकि याद सबको रहे, होली का हुड़दंग।।
सबको हल्कू की कथा, करती बड़ी अधीर।
झबरे जैसी भी करे, कोई पेश नज़ीर।।
बाहर जाकर गाँव के, मचता था हुड़दंग।
मिलकर साथी लूटते, जब भी कटी पतंग।।
बचपन में थक हारकर, जब भी हुए निढ़ाल।
माँ का आँचल बन गया, सभी दुखों की ढाल।।
फसल बहाकर ले गई, फिर नदिया की धार।
विपदा से मानी नहीं, पर होरी ने हार।।
– ईशान अहमद