छंद-संसार
दोहा छंद
धरती का जमकर किया, सावन ने श्रृंगार।
मेघों ने भी झूमकर, गाया राग मल्हार।।
सावन ने झरकर किया, नदियों का उद्धार।
वृक्ष लगाकर हम करें, धरती का श्रृंगार।।
सावन ने सिग्नल दिया, मेघों ने बौछार।
हरियाली ने कर दिया,धरती का श्रृंगार।।
लगे अखरने आजकल, घर में रिश्तेदार।
मंहगाई ने कर दिया, ऐसा बंटाधार।।
रिश्तों में खुश्बू नहीं, हुआ नदारद प्यार।
सच पूछो तो रह गया, अब मौखिक व्यवहार।।
मन के बुरे विचार से, उपजे विष का बीज।
निश्चित है फिर हर पतन, लाख पहन ताबीज।।
मुझसे भी ज्यादा ज़हर, उगल रहा इंसान।
यही सोचकर हो रहा, विषधर भी हैरान।।
डर लगता है आजकल, इंसानों के बीच।
पता नहीं किस भेष में, मिल जाये मारीच।।
आँखे अपनी खोल कर, देख जरा संसार।
क्या जीता तूने यहाँ, और गया क्या हार।।
उत्तरदायी कौन है, किसकी है ये भूल।
सिमटी हैं कलियाँ अगर, खिले नहीं हैं फूल।।
घटते तो बिल्कुल नहीं, बढ़ जाते हैं और।
अरमानों की सूचि पर, जब करता हूँ गौर।।
मकड़ी सी कारीगरी, बगुले सी तरकीब।
दुनिया मे होती नहीं, सबको सहज नसीब।।
बादल फटने लग गये, धंसने लगे पहाड़।
बन्द करो अब भी मनुज, कुदरत से खिलवाड़।।
जब दिल से जज़्बात की, चलती है बारात।
आ जाते हैं हाथ में, कागज़ कलम दवात।।
चाहे धन्ना सेठ हो, चाहे रहे नरेश।
प्याला उनकी चाह का, भरता कहाँ रमेश।।
– रमेश शर्मा