छंद संसार
दोहा छंद
तुलसी ने मानस रचा, नहीं लिखी यह पीर।
कलजुग में उस राम पर, निकलेंगी शमशीर।।
माई माई कर रहा, ड्योढ़ी खड़ा फकीर।
माई ने देखा नहीं, उन अंखियन का नीर।।
गीता पर भी मान है, अर कुरआं का ध्यान।
मैंने तो सीखा यही, ज्ञान तो है बस ज्ञान।।
महावीर अर बुद्ध का, समझे ना जो मर्म।
कर्मकाण्ड को छोड़कर, लेकर बैठे धर्म।।
सीता संगी राम की, घर हो या वनवास।
इससे बढ़कर क्या मिले, प्यार भरा एहसास।।
टूटी फूटी झोपड़ी, या महलों का जाल।
मैंने तो समझा यही, अंतर है बस काल।।
जिस मन में रहता नहीं, श्रद्धा रूपी न्यास।
किंचित ना होता उसे, प्यार भरा एहसास।।
मेरे जानिब मोड़ दो, मझधारों के छोर।
डूबूँगा इस ओर मैं, निकलूँगा उस ओर।।
पतझड़ का यह वेष भी, पतझड़ का संदेश।
कालचक्र से आज तक, बचता है क्या शेष।।
खुदा बताना अब मुझे, मैं निकलूं किस पार।
अपनों ने छोड़ी नहीं, हाथों में पतवार।।
– मानस मिश्रा