रचना-समीक्षा
‘दोहा’ छंद के माध्यम से विभिन्न सामाजिक समस्याओं को शब्द देती संजय की उत्कृष्ट रचनाएँ: के. पी. अनमोल
दोहा हिंदी साहित्य का अति प्राचीन छंद है। हिंदी के आदि कवि सरहपा ने भी अपनी भावाभिव्यक्ति दोहे के माध्यम से की है। तब से अब तक असंख्य हिंदी रचनाकारों ने इस विधा में अपनी क़लम चलायी है। आज भी अनेकानेक रचनाकार इस विधा में अपने भाव अभिव्यक्त कर रहे हैं।
‘दोहा’ का प्रारूप ही इतना प्यारा है कि कोई भी इसकी तरफ सहज ही आकर्षित हो जाता है, फिर चाहे वह पाठक हो या रचनाकार। 13, 11….13, 11 मात्रा भार लिए केवल दो लयबद्ध पंक्तियाँ, जिनके अंतिम शब्द तुकांत होते हैं, बहुत कम और सधे हुए शब्दों में जीवन के गहरे अनुभव को शब्दबद्ध कर पाठक के मन को रसविभोर कर देती हैं।
दोहा छंद में भक्तिकालीन कवियों ने इतनी प्रभावी रचनाएँ की हैं कि दोहे का नाम लेने पर ही हमारे मानस में उस समय के कुछेक रचनाकारों के नाम उभरकर आ जाते हैं।
सूर सूर, तुलसी शशि, उडुगन केशवदास।
अब के कवि खद्धोत सम, जहं तहं करत प्रकाश।।
सूरदास, तुलसी, कबीर, रहीम, बिहारी, केशव आदि अनेक रचनाकारों ने दोहा छंद को अत्यधिक मुखरता प्रदान कर दी है।
कालांतर में निदा फ़ाज़ली साहब ने दोहे को एक अलग ही अंदाज़ दिया। एकदम ताज़ातरीन कथ्य के साथ नये-नये बिम्ब, प्रतीकों से युक्त इनके दोहों ने इस विधा में मानों ताज़गी भर दी।
मैं रोया परदेश में, भीगा माँ का प्यार।
दिल ने दिल से बात की, बिन चिट्ठी, बिन तार।।
आज के दौर में हिंदी के पास ताज़गी युक्त दोहकारों की एक लम्बी कतार है। कई नए रचनाकार भी इस विधा में बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।
आज हम बात कर रहे हैं दिल्ली के एक युवा रचनाकार की जो बेहतरीन ग़ज़लकार होने के साथ-साथ उम्दा दोहाकार भी हैं। यह दोहाकार संजय तनहा जी पेशे से अध्यापक हैं। पिछले दिनों ‘बाबूजी का भारतमित्र’ जैसी प्रतिष्ठित पत्रिका के मार्च अंक में इनके कुछ दोहे पढने में आये। इन्हें पढ़कर लगा कि इन पर बात की ही जानी चाहिए। संजय स्वभाव से आत्मकेन्द्रित और गंभीर प्रवृति के हैं, शायद इसीलिए इनकी रचनाओं के विषय भी समाज के विभिन्न गंभीर सरोकारों को लेकर ही होते हैं। इनके दोहे कथ्य, शिल्प, भाषा आदि हर दृष्टि से उत्कृष्टता लिए होते हैं।
जला हुआ मुख देखकर, हुआ उसे महसूस।
सुन्दरता उसके लिये, थी कितनी मनहूस।।
दोहे के माध्यम से ‘एसिड अटैक’ जैसी भयानक सामाजिक बीमारी को शब्द देते हुए संजय ऐसे हमलों की चपेट में आयीं युवतियों के मन की तह से पीर भरे ये अहसास खींचकर ले आते हैं।
अपने एक दोहे में आजकल के ढोंगी बाबाओं, मौलवियों की असलियत को चित्रित कर कहते हैं-
मन में रखते ये हवस, मुख से जपते राम।
बाबाओं के हो चले, कितने गंदे काम।।
आज जब दिन-ब-दिन हम ऐसे धर्मगुरुओं की पोल खुलते देख रहे हैं, तो इनके ये शब्द हमारी भावनाओं के लिए बिलकुल सटीक बैठते हैं।
रोज़ी-रोटी के जुगाड़ के लिए आज अधिकतर युवाओं को अपना गाँव छोड़ना पड़ रहा है। ऐसे में साल के अधिकतर महीने बाहर गुज़ारकर कुछ दिन के लिए अपने गाँव लौटा युवक गाँव में मौज-मस्ती में बीते दिनों की याद को किस तरफ ‘सहलाता’ है, संजय के दोहे की नज़र से देखिये-
आया वापिस लौटकर, घर अपने शमशेर।
बरगद से लगकर गले, रोया काफ़ी देर।।
सभी धर्मों/सम्प्रदायों के अनुसार आख़िरत में हिसाब वाले दिन आम इंसान से ज़्यादा पकड़ धर्म के रहनुमाओं की होगी। क्यूंकि एक तो इन पर पूरी कौम की रहनुमाई की ज़िम्मेदारी होती है, दूसरे ये धर्म के बारे में सबकुछ जानते हुए भी गुनाह कर बैठते हैं, तो इनकी ‘ख़बर कुछ ज़्यादा ली जानी है।‘ ऐसे में सभी धर्मों के रहनुमाओं को आगाह करते हुए रचनाकार कहता है-
मंदिर का पंडित खड़ा, आज नर्क के द्वार।
मीन सदा जल में रही, फिर भी बदबूदार।।
‘मीन सदा जल में रही’ पंक्ति से ये अपनी बात सिद्ध करने के लिए बड़ा सटीक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस दोहे में पहली पंक्ति में एक फ़लसफ़ा बयान कर दूसरी पंक्ति में बड़ी कुशलता के साथ उसे सिद्ध कर रचनाकार हिंदी के बड़े रचनाकारों की सफ़ में शामिल होने का पुरज़ोर दावा ठोंकता है। संजय तनहा जी का यह दोहा अत्यंत सफल व यादगार दोहा होगा।
राजनीति पर कटाक्ष करते हुए एक अलग ही अंदाज़ में ये कहते हैं-
पाक साफ़ संसद तलक, यूँ आते हैं दाग़।
उजला खद्दर ओढ़कर, घुस आते हैं नाग।।
कितना सही और सार्थक दोहा है यह आज के ‘संसदीय परिवेश’ पर।
आज की प्रोग्रेस्सिव सोच वाली नयी नस्ल की मानसिकता पर ज़ोरदार प्रहार करते हुए संजय कहते हैं-
नयी सदी की नस्ल भी, करती ख़ूब कमाल।
बेघर कर माँ-बाप को, कुत्ते लेती पाल।।
और यही तो हम अपने आस-पास देख रहे हैं। दिन-ब-दिन बढ़ते वृद्धाश्रमों के दौर में लोग कुत्ते को घुमाने में अपनी शान समझने लगे हैं।
बढती सांप्रदायिकता से आहत हो कवि भारत माता के घायल होने की अवस्था का वर्णन अपने दोहे में कुछ यूँ करता है-
शहर शहर दंगे छिड़े, गाँव गाँव पथराव।
भारत माँ के भाल पर, नित नित बढ़ते घाव।।
असल में खून चाहे किसी भी ज़ात, किसी भी धर्म का बहे चोट भारत माँ के बदन पर ही लगती है। लेकिन ये बात न हम कभी समझे हैं, न कभी समझ पायेंगे।
देश में महिलाओं के साथ बढ़ती दुराचार की घटनाएँ और अमानवीय कृत्य थमने का नाम नहीं ले रहे हैं। कहीं न कहीं ऐसी ढेर सारी कमियाँ हैं, जिन्हें हम देख नहीं पा रहे हैं और सिर्फ़ हाय-तौबा मचाये जा रहे हैं। रचनाकार इस माहौल का चित्रण कुछ यूँ करता है-
गिद्दों ने कपड़े सभी, लिए बदन से नोंच।
कितनी पैनी देख लो, हुई हवस की चोंच।।
पत्रिका में प्रकाशित इनके सभी दोहे उल्लेखनीय हैं। हर दोहा एक सामाजिक विडंबना को हमारे सामने लाकर खड़ी कर रहा है। ऐसे घातक समय में जीते हुए रचनाकार बार बार सोचता है-
पत्थर के दिल कर दिये, लोहे के जज़्बात।
नई सदी की देखिये, मानव को सौगात।।
नए समय में बहुत सारी नयी समस्याएँ हमने अपने लिए खड़ी की हैं और कर रहे हैं। यही समस्याएं हम अपनी आने वाली नस्लों को विरासत में देकर जाने को तैयार हैं। खैर ‘हम कभी तो सुधरेंगे’ की उम्मीद कभी नहीं छूटेगी।
बहरहाल पत्रिका के संपादक को इन महत्त्वपूर्ण रचनाओं के प्रकाशन के लिए साधुवाद। संजय तनहा जी की तनहाई को बहुत बहुत धन्यवाद कि ‘वो’ इनसे इस तरह की उपयोगी रचनाओं का सृजन करवाती है। भाई संजय को सुनहरे साहित्यिक भविष्य की बहुत बहुत शुभकामनाएँ।
समीक्ष्य रचनाएँ-
– के. पी. अनमोल