देशावर
जीवन की लंबी यात्रा में विभिन्न पड़ावों की अहम् भूमिका रहती है। हर पड़ाव पर घटनाओं का क्रम ऐसे ऐसे नज़ारे दिखाता है कि मानस पटल पर स्मृतियों की गहरी रेखाएँ अंकित हो जाती हैं। सुख दुख के रंगों से खींची गई ये रेखाएँ मन को कभी उल्लसित कर जाती हैं तो कभी उद्वेलित कर जाती हैं। यद्यपि जीवन आगे बढ़ता चलता रहता है परंतु समय समय पर ये स्मृतियाँ उभर करअपने अस्तित्व का भान कराती रहती हैं और अविस्मरणीय संस्मरणों के रूप में जीवन का अभिन्न अंग बन जाती हैं।
संस्मरणों के गलियारे में घूमते हुए अंतरंग प्रसंग साझा कर कही हूँ।
1.
हिंदी जगत से जुड़े लेखक और पाठक, प्रसिद्ध गाँधीवादी लेखक, चिंतक, पत्रकार, संपादक स्व. पद्मश्री श्रद्धेय यशपाल जैन जी से भलीभाँति परिचित होंगे। यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उनकी सुपुत्री हूँ। उनसे जुड़े अनेक प्रसंग जीवन को दिशा प्रदान करते हैं और उत्तम जीवन जीने की प्रेरणा भी देते हैं। यह संस्मरण बाबूजी के भावनात्मक और संवेदनशील व्यक्तित्व पर विशेष रूप से प्रकाश डालता है।
बात 1954 की है। हम दो तीन परिवार कश्मीर गए थे। बड़े छोटे मिलाकर लगभग बारह लोग थे। सब लेग कृष्णा हठीसिंह जी के आग्रह पर उनके निवास पर ठहरे थे। कृष्णा हठीसिँह नेहरू जीऔर विजय लक्ष्मी पंडित की सबसे छोटी बहन थी व प्रसिद्ध लेखिका भी थीं। मैं दस वर्ष की थी और छोटा भाई मैं साढ़े आठ वर्ष का था। हम दोनों ने पूरी यात्रा में बाबूजी को बहुत तंग किया। कभी भूख, कभी प्यास, कभी पेट मे दर्द, कभी पैर में दर्द, कभी यह ज़िद तो कभी वह ज़िद। बाबूजी हँसते-हँसाते, हमें बहलाते फुसलाते, हमारी हर बात का समाधान करते रहे। लेकिन एक दिन अम्मा ग़ुस्से से चिल्ला कर बोलीं, “ परेशान कर दिया है इन बच्चों ने।अब इन्हें कभी साथ वहीं लायेंगे।” अम्मां की यह बात मुझे चुभ गई।
अगले दिन जब सब घूमने के लिए रवाना होने लगी तो मैं अड़ गई कि हम तो परेशान करते हैं, हम नहीं जायेंगे। अम्मा ने पहले प्यार से ख़ूब समझाया, फिर डाँटा पर मैं टस से मस नहीं हुई। किसी दूसरे के घर में तमाशा बनते देख, अम्माँ झुँझलाती हुई बाबूजी से शिकायत कर आईं। बाबूजी कमरे में आए और मेरे कंधों को दबाते हुए इतना भर बोले.” क्या बात है? चलो।” मैंने उनकी आवाज में छिपी खीज भाँप लीऔर मेरे बाल सुलभ मन पर उस अप्रत्याशित खीज का बड़ा असर हुआ।
मैं चल तो दी पर बाबूजी से रूठी रही। रास्ते भर बाबूजी ने मुझे हर तरह से हँसाने का प्रयत्न किया पर मैं जान बूझ कर अपनी उदासी जताती रही। बाद में डल झील में सैर की बात आई। दो शिकारे किए गए। यूँ मैं हमेशा बाबूजी के साथ रहती थी पर इस बार अलग शिकारे में बैठी। बाबूजी यह सब भाँप रहे थे। थोड़ी देर में बाबूजी वाला शिकारा हमारे शिकारे से सट कर चलने लगा और मैंने हैरत से बाबूजी को अपने एकदम सामने बैठा पाया। उनकी तरफ नजर पड़ी तो हक्की बक्की रह गई। वे दोनों हाथों से अपने कान पकड़ कर मुझसे जैसे कह रहे हों कि मुझसे ग़लती हो गई, मुझे क्षमा कर दो। मेरी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। आज भी उस पल को याद कर मेरी आँखें भर आती हैं।
मुझे याद है जब यह संस्मरण मैंने बाबूजी की 60वीं वर्षगाँठ पर दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन हॉल में बडे नेताओं और वरिष्ठ लेखकों के सामने सुनाया तो श्री जगजीवन राम जी ने मुझसे कहा,”बेटी, तूने को हमें रुला दिया।”
डॉ. प्रकाशवीर शास्त्री, डॉ. क्षेमचंद सुमन.डॉ लक्ष्मीमल्ल सिंघवी तथा अन्य गणमान्य अतिथियों ने मुझे बहुत सराहा। डॉ सिंघवी ने तो यहाँ तक कहा कि,” अन्नदा, तुझे तो लेखिका होना चाहिए।” मुझे पता नहीं था कि उनकी भविष्यवाणी सच हो जाएगी। मेरे लिए उतनी बड़ी संख्या में उपस्थित बुद्धिजीवी समुदाय के समक्ष बोलने का यह पहला अवसर था। मैंने अनुभव किया कि दिल की गहराई से निकली बात सभी के दिल को छू जाती है। यह प्रसंग बेटी के प्रति वात्सल्य की बड़ी मिसाल है, ऐसा मैं महसूस करती हूँ। तभी कहती भी हूँ कि मेरे बाबूजी जैसा इस संसार में कोई नहीं है।
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2..
कहते हैं राजनीति का दिल से कोई लेना देना नहीं है। वायदे करके मुकरना और निहित स्वार्थ के वशीभूत दूसरों के प्रति उदासीन व असंवेदनशील रहना उसकी फ़ितरत कही जाती है। पर मेरा अनुभव इन मान्यताओं से बिल्कुल विपरीत रहा है।
देश की कैबिनेट सरकार में उच्च पद पर आसीन तीन महामहिम उपराष्ट्रपतियों से संबंधित मेरे संस्मरण हैं जो राजनीति या राजनीतिज्ञों के बारे में प्रचलित धारणा को गलत सिद्ध करते हैं।
पहले बात करूँगी, उपराष्ट्रपति आदरणीय कृष्णकांत जी की। 1998 में बाबूजी को दक्षिण अमेरिका में तुलसीदास जी की 500वीं जयंती में भारतीय लेखकों और कुछ धर्म गुरुओं को आमंत्रित किया गया था। बाबूजी डेलिगेशन का नेतृत्व कर रहे थे। इन सबका पूरा ख़र्चा भारतीय सरकार वहन कर रही थी। मैं और मेरे पति आमंत्रित थे पर हमारी यात्रा का भार हमें उठाना था।
यात्रा बहुत लंबी थी अत: बाबूजी को थोड़ा विश्राम मिले इसके लिए बड़े बेटे पराग के पास वॉशिंगटन में रुकने का विचार आया । पता लगा बाबूजी के रूट परिवर्तन पर उपराष्ट्रपति कृष्णकांत जी से जो आईसीसी आर के प्रमुख थे, परमीशन लेनी पड़ेगी। मुझे और बाबूजी को कृष्णकांत जी ने हमें अपने घर बुलाया। उनकी आवभगत भुलाई नहीं जा सकती। सब घर की बनी चीज़ें आग्रहपूर्वक हमें खिलाईं। बाबूजी के रूट बदलने की बात पर उन्होंने बड़े प्यार से मेरी तरफ देख कर कहा,”अच्छा, बेटी को पिता की सुविधा का ख़्याल आ रहा है।” मैंने बार बार इस बात पर जोर दिया कि सरकार पर इस परिवर्तन से एक्स्ट्रा आर्थिक भार नहीं बढ़ेगा और मैं और मेरे पति अपना ख़र्चा खुद उठा रहे हैं। कृष्णकांत जी ने आईसीसी आर से परामर्श कर सूचित करने का आश्वासन दिया। कुछ देर साहित्यिक चर्चा आदि के बाद हम घर आ गए।
अगले दिन फोन की घंटी बजने पर मैंने ही फोन उठाया। उधर से आवाज़आई ,”मैं महामहिम उपराष्ट्रपति जी के कार्ययालय से बोल रहा हूँ। उन्होंने यशपाल जी को वाया वॉशिंगटन जाने की अनुमति दे दी है। साथ ही उनकी पुत्री अन्नदा की टिकट भी फ़्री कर दी है।” मैं तो स्तब्ध रह गई। मैंने तो इस बारे में भलीभांति स्पष्ट कर दिया था कि हमें अनुदान नहीं चाहिए था।
यात्रा से लौटने पर हम कृष्णकांत जी को धन्यवाद देने उनके निवास पर गए तब उन्होंने बताया कि,”अन्नदा, पिता के लिए एक बेटी की चिंता ने मुझे बहुत प्रभावित किया। मैं भी पिता हूँ, मेरी भी बेटी है। तुम्हारे लिए इस से उचित इनाम क्या हो सकता था।”
दूसरा अनुभव 1969 का है। उस समय डॉ. गोपाल स्वरूप पाठक जी उपराष्ट्रपति थे। गंगोत्री की यात्रा के दौरान हमारी जीप को रोक दिया गया क्योंकि पाठक जी के कॉनवॉय (क़ाफ़िले)को पहले जाने देना था। बाबूजी जीप से उतर कर वहीं चहलक़दमी करने लगे।
तभी एक गाड़ी उनके पास आ कर रुकी। उपराष्ट्रपति पाठक जी उस में से उतरे और तपाक से बाबूजी से मिले और पूछा,” आप यहाँ कैसे?” बाबूजी ने हँसकर कहा,” जैसे आप यहाँ।” बस उसके बाद गंगोत्री तक उन्होंने बाबूजी को नही छोड़ा यह कह कर कि,”अच्छा हुआ आप मिल गए नहीं तो प्रोटोकॉल के नाते मैं अपने मन की बात किसी से शेयर नहीं कर पा रहा था।”
मेरा चार वर्ष का बेटा पराग यात्रा में खान-पान तथ अन्य कई कारणों से टॉयलेट नहीं जा पा रहा था। यहाँ पाठक जी के कारण साफ़ सुथरे बाथरूम होने कारण मैं उसे ले कर चली गई। खाना मेज पर लगा था। बाबूजी के बहुत अनुरोध के बाद भी उन्होंने खाना शुरू नहीं किया। कहते रहे,‘बेटी और पोते को आने दीजिए।’ इतना वात्सल्य और छोटों को इतना आदर! कोई संवेदनशील और संस्कारवान महानुभाव ही कर सकता था। आज भी अभिभूत हूँ और नतमस्तक हूँ।
महामहिम उपराष्ट्रपति आदरणीय स्व. भैरोसिंह जी शेखावत के बारे में जितना कहूँ कम है । बाबूजी की पुण्यतिथि पर उनके प्रतिदिन की डायरी में लिखे विचारों का मेरे द्वारा संकलित ‘अंतर्दृष्टि ‘ नामक पुस्तक के लोकार्पण के सिलसिले में उपराष्ट्रपति भवन में उनसे मिलना हुआ । उनकी व्यस्तता के कारण तारीख़ और समय निश्चित नहीं हो पा रहा था। बार बार वे अपने पी ए से कहते रहे ,” समय तो देना पड़ेगा। यह भावुक विषय है, बेटी की इच्छा का ख़्याल तो रखना पड़ेगा।”
एक अन्य कार्यक्रम से पहले आधा घंटा समय था। आ. शेखावत जी ने स्वयं वह समय तै कर दिया। संचालन मैं ही कर रही थी। समय पर वे आए और कार्यक्रम में इतने रम गए कि जब डॉ.लक्ष्मीमल्ल सिघवीं जी ने मुझे स्मरण दिलाया कि शेखावत जी को जाना है तो भैरोसिंह जी ने मुझसे कहा, “ अन्नदा, चालू रखो, मैंने अगले कार्यक्रम में जाना रद्द कर दिया है।” कहना न होगा आधे घंटे की बजाय उन्होंने ढाई घंटे हमारे साथ बिताए। जलपान स्वयं ने किया व अतिथियों की मेज़बानी भी की। मेरी आँखों में आँसू थे। लगा उनके रूप में बाबूजी आ गए हों। उन्होंने मेरी आँखें नम देखीं तो मुझे गले लगा लिया।
कैसे भूल सकती हूँ इन अनमोल क्षणों को, इन वात्सल्यमयी स्मृतियों को, इन बहुमूल्य संस्मरणों को। ये संस्मरण मेरे अंतर्मन की वह धरोहर है जो मेरी मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था को और दृढ करते हैं।
राजनीति के दलदल में खिले ये कमल भले ही मुरझा चुके हैं पर अपनी अमिट छवि मेरे हृदय में अंकित कर गए हैं। तीनों महान विभूतियों को मेरा शत शत नमन।
– अन्नदा पाटनी