उभरते स्वर
दूसरी औरत
मैं, दूसरी औरत
तुम्हारी पत्नी नहीं, बीवी नहीं,
संगिनी नहीं, अर्धांगिनी नहीं,
भार्या नहीं, जीवनसाथी नहीं,
मैं, वो दूसरी औरत।
मैं,
तुम्हारी तृष्णा, तुम्हारी तिश्नगी,
तुम्हारी भूख, तुम्हारे अकेलेपन की साथी,
तुम्हारी दोस्त, तुम्हारी प्रेमिका,
तुम्हारा घर नहीं, पर आसरा,
मैं, वो दूसरी औरत।
मैं,
तुम्हारे नयनों की खोज,
मैं, तुम्हारी तड़प,
तुम्हारी दिल में बसी तस्वीर,
तुम्हारी आँखों में क़ैद एक मूरत,
तुम्हारी रूह तक पहुँचा वह एहसास।
मैं, वो दूसरी औरत।
मैं वो,
जिसके बिना कोई पहर न हो तुम्हारी,
मैं वो,
जिसके साथ जीवंत हो उठो तुम,
मैं वो,
जिसके बिना शिथिल, नीरस से तुम,
मैं वो,
जो रस-रास, मिठास, मधुर एहसास।
मैं अलंकार,
मैं ही शृंगार,
मैं बंधन नहीं,
मैं स्वच्छंदता।
फिर मैं वो भी,
जिसे एकांत-वास,
जिसे हो छुप कर रहना सबसे।
मैं वो भी,
जिसका न हो
किसी को विश्वास।
मैं वो,
जिसके आँसू हो अदृश्य,
जिसकी व्यथा हो अकथनीय,
जिसको न हो अब किसी से आस,
मैं वो दूसरी औरत।
मैं वो,
जिसका था सारा दोष-
क्यों किया प्रेम,
क्यों रही साथ,
क्यों नहीं तोड़े सारे बंधन,
क्यों बंधी रही विवाहित के साथ?
मैं वो,
जिसको जग की निष्ठुरता मिली
तुम्हारे तुम्हारे प्रेम के साथ,
मैं वो,
जिसको सबकी आँखों से
मिला सिर्फ तिरस्कार।
मैं वो, दूसरी औरत।
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भाव
पंख थे क्या वे
दो नर्म, मुलायम
जहाँ बाजू हैं धड़ में अब?
पंख थे क्या वे
ले चलते जो
विशाल नभ की उचाईयों तक?
पंख थे क्या वे
जो साथी थे
अंतर्मन भयभीत हुआ जब?
पंख थे क्या वे
जिनके कारण
पार हुए वह चक्रवात सब?
पंख थे क्या वे
कतर गये अब
पीछे छोड़ कसक उड़ान की?
पंख ही होंगे
जो कतर गये अब
असहाय है यह तन-मन अब।
पंख न थे तो
क्या थे वे दो?
नर्म, मुलायम, बलशाली पर।
क्या पंख ही थे
विचार नहीं थे?
आत्मशक्ति थी जिनके कारण?
अब पंख न हों यदि,
हार मान लूँ?
भय की चादर ओढ़ के बैठूँ?
पंख ही कतरे
भाव नहीं,
सिंचित है मन इस क्षण जिनसे।
भाव निडर हैं,
भाव प्रबल हैं,
मेरी ऊर्जा उनसे है।
भाव ही हैं,
थे , सदा रहेंगे
पंख तो केवल साधन भर थे।
यही ठान
बिन पंख उड़ूँगी
नित पार करूँगी
वायुमंडल की सब परतें अब।
– रूपम मिश्रा