दुर्मिल सवैया छंद
रब
चल ध्यान लगा रब में अपना,
इस जीवन में अँधकार भरा।
अब भूल मिटा दुख दर्द सभी,
कर लो रब से तुम प्यार जरा।
सुनता रब है पल में सबकी,
उसका कर थाम जहान तरा।
रब की धुन में मनवा रमता,
रब ने हिय में नित वास करा।
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सावन
बिखरी नभ में सतरंग छटा,
हिय झूम रहा मन प्राँगन में।
तन भीग रहा यह सावन में,
बरसात झरी जब आँगन में।
मदमस्त हुआ यह मौसम है,
खिलते प्रिय फूल हियाँगन में।
झरती जब बारिश मैं थिरकी,
बजती पग पैजन भागन में।
डरती जब मैं चमके बिजुरी,
लगती मुझको यह नागन रे।
झुलसे तन ये बिन साजन के,
बिन साजन आज अभागन रे।
सजना करती जब रातजगा,
अँखियाँ दुखती तब जागन रे।
पहना चुनरी पिय सावन में,
सखि छेड़त नील सुहागन रे।
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शिव
दुख जीवन के सब हैं मिटते,
शिव शंकर का मन ध्यान धरे।
जग पालक हैं शिव शंकर जी,
शिव ही सबपे उपकार करे।
हरते शिव कष्ट सभी जग के,
शिव कंठ हलाहल को सहते।
करता नित पूजन मैं शिव का,
शिव ही मम अंतस में रहते।
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विधु की कल्पना
तकता विधु अंबर से मुखड़ा,
कहता मुझसे हिय हैं बहके।
सरका मुख से यह आँचल रे,
मन में अहसास उठे दहके।
कहता दिखती तुम हो विधु सी,
विधु पाकर हैं कितना चहके।
मनमोहक हो विधु है कहता,
मन की बगिया तुमसे महके।
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मनमोहन
धरती यह पावन भारत की,
मनमोहन प्रीत लुटाय यहाँ।
जग में प्रिय गाय मनोहर को,
बन बालक गाय चराय यहाँ।
बसते सबके मन मोहन हैं,
छिपके हिय रास रचाय यहाँ।
सबके क्रिश पालनहार बने,
हरते दुख कष्ट मिटाय यहाँ।
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भोर
निकला जब सूरज पूरब से,
धरती पर हैं किरणें चहकी।
कलियाँ खिल पुष्प लगी बनने,
बिखरा मकरंद धरा महकी।
खग गुंजित अंबर को करते,
उनका सुन शोर हवा लहकी।
जब आँख खुली दिन था निखरा,
दिन देखत साँस जरा बहकी।
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पिय की याद
हिय में पिय याद बसाय सखी,
अब मैं सब छोड़ चली वन में।
लगता मन ये अब नाहि कहीं,
उठती अब याद सदा मन में।
यह जीवन नर्क हुआ सुन ले,
बिन उनके प्राण नही तन में।
कहती दुनिया कन में रब है,
तब से रब ढूंढ रही कन में।
– जीतेन्द्र सिंह नील