ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल
बूढ़ा बरगद, हरिअर पीपल, नीम पुराना मिल जाएगा
तपते तन को देहातों में ठौर ठिकाना मिल जाएगा
इतनी भी बदरंग नहीं है दुनिया जितना तुम समझे हो
धूल हटाओ मन दर्पण की रूप सुहाना मिल जाएगा
यूं तो सब अनजाने हैं इस बेगानी बस्ती में यारो
ढूंढो तो कोई चेहरा जाना पहचाना मिल जाएगा
कितना सच कहती थी दादी अब जाकर मालूम हुआ है
सुख बाँटोगे तो तुमको सुख का नज़राना मिल जाएगा
राम करे मेरी रुसवाई उसके कानों तक भी पहुँचे
मुझको बिसराने का उसको एक बहाना मिल जाएगा
बन जाओ जीवन का हिस्सा जीवन को मत समझो क़िस्सा
खुल जा सिमसिम तुम बोलोगे और खज़ाना मिल जाएगा?
मुझको पागल कहने वालो नादानी पर शरमाओगे
इस पागलखाने में जिस दिन एक सयाना मिल जाएगा
सच के पथ पर शूल बिछाए और बिखेरे शोले जग ने
मस्ती में इस पथ पर चलता इक दीवाना मिल जाएगा
नूर बिखेरो महफ़िल महफ़िल तुम ‘ख़ुरशीद’ ग़ज़ल गा गाकर
इस दुनिया को उजलेपन का एक तराना मिल जाएगा
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ग़ज़ल
आँधी में इक दीप जलाकर आया हूँ
अँधियारे को आँख दिखाकर आया हूँ
मेरी हँसी पर जलने वाले क्या जाने
दिल में कितना दर्द छुपाकर आया हूँ
मुट्ठी में जो नमक छुपाकर बैठे थे
उनको भरता घाव दिखाकर आया हूँ
तुझको दाग़ी कैसे कह दूँ यार बता
दर्पण से ख़ुद आँख चुराकर आया हूँ
नव पीढ़ी को बाग़ मिलेंगे राहों में
सहराओं में फूल उगाकर आया हूँ
खौफ़ दिखाते हो किसको तुम शोलों का
अपने घर में आग लगाकर आया हूँ
सागर अपनी धौंस जमाए और कहीं
मैं शबनम से प्यास बुझाकर आया हूँ
गाँवों तक भी पहुँचेगी कुछ अरुणाई
आँखों में इक ख़्वाब सजाकर आया हूँ
मैं ‘ख़ुरशीद’ निभाता हूँ हर इक वादा
फिर प्राची में भोर जगाकर आया हूँ
– ख़ुर्शीद खैराड़ी