ख़ास-मुलाक़ात
दिमाग एक मशीन है तो अभी मेरी मशीन चल रही है: अजमल सुल्तानपुरी
स्वनाम धन्य, अपनी परम्परा के इकलौते शायर तथा गीतकार, आलोचकों द्वारा प्रदान की गई अनेकों उपाधियों को धारण करने वाले, हिन्दुस्तान के असंख्य शायरों और कवियों के उस्ताद और मार्गदर्शक, बाह्य आडम्बरों से सदैव कोसों दूर रहने वाले, अपने आप में एक संस्था के रूप में पहचाने जाने वाले, सैकड़ों पुस्तकों के लेखक अजमल सुल्तानपुरी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उनके जीवन और शायरी से जुड़े कुछ अनछुए पहलुओं पर चर्चा की हैं डॉ. अरुण कुमार निषाद ने। पेश है उनसे बातचीत के कुछ अंश-
डॉ. अरुण कुमार निषाद- सबसे पहले आप अपने बारे में बताने का कष्ट करें कि आप का बचपन किस प्रकार का रहा?
अजमल सुल्तानपुरी- मेरी माँ के बताने के अनुसार मेरा जन्म सन् 1926 ई. के आसपास हुआ है। चूँकि मेरी शिक्षा किसी पाठशाला में नहीं हु़ई इसलिए इस सम्बन्ध में कहीं कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। मेरा जन्मस्थान सुल्तानपुर ज़िले के कोड़वार (कुड़वार) रियासत के हरखपुर गाँव में हुआ। यह शहर से पश्चिम में 12 किमी पर है। मेरे पिता जी का नाम मिर्ज़ा आबिद हुसैन बेग़ था। हम दो भाई और दो बहन थे। सबसे बड़ा मैं था। मैं चार-पाँच साल का था तो पिताजी का इंतकाल हो गया। पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण मैं बचपन ही न जान पाया।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- शायरी आपको वसीयत में मिली या संयोग था कलम पकड़ना?
अजमल सुल्तानपुरी- संयोग ही कह सकते हैं। मेरे से पहले जहाँ तक मेरी जानकारी है; मेरे परिवार में किसी को इसका शौक़ नहीं था।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- इस आयु में भी क्या आप लिखते-पढ़ते हैं?
अजमल सुल्तानपुरी- नहीं। अब लिखना एकदम से बन्द है। (मुस्कुराते हुए) पर शायरी दिमाग़ से बन्द नहीं हुई है। वह अब भी दिमाग़ में आती है। दिमाग एक मशीन है तो अभी मेरी मशीन चल रही है।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- पाठकों को आपकी प्रकाशित किताबों की जानकारी दीजिये?
अजमल सुल्तानपुरी- ‘सफ़र ही तो है’ मेरी पहली किताब है। अब आपने इसका ज़िक्र छेड़ ही दिया है तो इसका एक शेर याद आ रहा है-
रो दिया दुनिया में जो पैदा हुआ
कौन आया है यहाँ हँसता हुआ
इसके अलावा बहुत सारी किताबें प्रकाशित हैं। सैकड़ों लोग आए पाण्डुलिपियाँ ले गये, छापे और कमाये न किसी ने एक पैसा उसका दिया मुझे और न ही मैंने कभी किसी से माँगा। कुछ धार्मिक किताबें भी लिखी है, पर अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाईं हैं। हो भी पायेंगी या नहीं; कुछ कह नहीं सकता।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- क्या आपने उर्दू अकादमी, साहित्य अकादमी को कभी अपनी किताब भेजी? वहाँ तो आजकल बहुत पैसा मिल रहा है?
अजमल सुल्तानपुरी- अजमल अल्लाह का दिया हुआ खाये हैं, उसी का दिया खायेंगे, न किसी के आगे हाथ फैलाये हैं न कभी फैलाने जायेंगे। आपने भी पढ़ा होगा कि
रहिमन वे नर मर चुके, जो कहुँ मांगन जाहिं।
उन ते पहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।
आज से कई साल पहले लोगों के कहने पर एक बार कुछ ग़ज़लें उर्दू अकादमी में भेजी थीं। वहाँ से जवाब आया कि अभी आप को किसी उस्ताद से इस्लाह की ज़रूरत है। यह उस समय की बात है जब लोग मुझसे इस्लाह लेने आते थे और मैं उनकी कविताओं को सही करता था। इसके बाद से आज तक मैंने किसी संस्था को कभी कोई ख़त नहीं लिखा।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- एक रचनाकार के रुप में आप सरकार से क्या अपेक्षा रखते हैं?
अजमल सुल्तानपुरी- सरकार से या किसी से भी कोई अपेक्षा रखने वाला आदमी रचनाकार हो ही नहीं सकता, फिर वह बनिया होगा। रचनाकार अगर किसी लालच के वशीभूत होकर लिखता है तो उसमें मौलिकता नहीं होती और पाठक को भी उसमें बनावटीपन दिखता है, फिर उसमें वह रस भी नहीं होता, जो कविता या शायरी में होना चाहिए।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- कविता के क्षेत्र में आप अपना गुरु किसे मानते हैं?
अजमल सुल्तानपुरी- ख़ुदा को। वही सारे उस्तादों का उस्ताद है। आदमी के रूप में कभी कोई मेरा उस्ताद नहीं हुआ।
मेरी इस्लाहे ग़ज़ल कौन करे ऐ अजमल
क्योंकि मुझसा कोई शायर कहीं पागल ही नहीं
या एक शे’र और याद आ रहा है कि-
मैं अपनी सिम्त ख़ुद अजमल सफ़र में हूँ मसरूफ़
मैं ख़ुद ही मंज़िलो, राही व राहो-रहबर हूँ
अपने समय के मशहूर शायर शैख़ तुफै़ल अहमद के साथ मेरा उठना-बैठना था। पर वे मेरे उस्ताद थे; आप ऐसा नहीं कह सकते। वे मुझे अपने साथ मुशायरों में अपने कलाम पढ़वाने के लिए ले जाते थे क्योंकि वे लिख तो अच्छा लेते थे पर गा नहीं पाते थे और अल्लाह ने मुझे गला दे रखा है।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- ‘महबूबा से गुफ़्तगू का नाम ही ग़ज़ल है’ ऐसा बहुत सारे आलोचकों का मानना है। इस पर आपकी क्या राय है?
अजमल सुलतानपुरी- जो मानते हैं मानें, मैं किसी को मना थोड़े ही कर रहा हूँ। यह उनका अपना मानना है। मेरा शे’र है कि-
मेरी ग़ज़ल नहीं औरत से बात करना सिर्फ़
मुझे मुआफ़ करैं लग़्व फ़न परस्त अरबाब
डॉ. अरुण कुमार निषाद- हर फ़नकार के पीछे मुहब्बत की कोई न कोई दिलचस्प कहानी रही है और शायरी में इसका असर भी दिखाई पड़ता है। इस बारे में अपने चाहने वालों को कुछ बताना चाहेंगे?
अजमल सुल्तानपुरी- मेरे साथ ऐसी कोई कहानी नहीं है। अगर ऐसा कुछ होता तो मैं आपसे ज़रूर बताता।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- क्या आप ने गद्य-पद्य दोनों लिखा है?
अजमल सुलतानपुरी- हाँ।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- क्या आपने आकाशवाणी और दूरदर्शन पर भी कविता पाठ किया है?
अजमल सुल्तानपुरी- हाँ। आज से लगभग 15 साल पहले की बात है- आकाशवाणी इलाहाबाद (प्रयागराज) से एक ख़त आया कि आपको अमुक तारीख़ पर प्रोग्राम देना है। मुझे मुशायरे में जाना था, जिसकी तारीख़ पहले से तय थी तो मैं आकाशवाणी नहीं गया और न ही इसके विषय में आकाशवाणी को कोई उत्तर भेजा। इसके कुछ महीनों बाद आकाशवाणी इलाहाबाद (प्रयागराज) से एक श्रीमती जी मेरे घर तशरीफ़ लाईं। वह आकाशवाणी में किसी ऊँचे पद पर थीं। उन्होंने प्रोग्राम में न पहुँचने और ख़त का जवाब न लौटाने की शिकायत की। और अपने साथ लाई एक दूसरे फार्म पर मेरे दस्तख़त करवाए। इस तरह मेरे प्रोग्राम आने लगे। इसके बाद लखनऊ और गोरखपुर से भी मेरे कार्यक्रम आने लगे।
डॉ. अरुण कुमार निषाद- नए रचनाकारों को क्या मशविरा देना चाहते हैं?
अजमल सुल्तानपुरी- निरन्तर लिखें। अच्छे लेखकों को पढ़ें, सच्चे गुरु के साथ उठे-बैठें, अपनी कविता उन्हें दिखाएँ।
– अजमल सुल्तानपुरी