मूल्याँकन
दायरा-ए-सुख़न में ‘कैफ़ियत’
– फ़ानी जोधपुरी
कुछ रोज़ पहले व्हॉट्सएप्प के ज़रिये एक शेर आँखों के सामने से गुज़रा-
दावे से मैं कह सकता हूँ अपने शह्र के बारे में
सौ में से दस बीस हैं शायर बाक़ी सारे अल्लाह खैर
मुझे नहीं पता इस शेर के ख़ालिक का नाम क्या है मगर बात बेशक पते की है कि शो’अरा (शायरों) के नाम पे हर शह्र में एक फ़ेहरिस्त मिल जाएगी मगर शाइरात (महिला शायर) के मुआमले में ऐसा क़तई नहीं मिलता। मुरस्सा कलाम कहने वाली शाइरात की तादाद पूरे हिन्दुस्तान में उंगलियों पर गिनी जा सकती है। डॉ. नुसरत मेहदी, अलीना इतरत, मीना नक़वी, अंजुम रहबर, नसीम निक़हत, डॉ. ज़ेबा फ़िज़ा वग़ैरह। ऐसे में किसी नई शाइरा की आमद सुकूनबख़्श होती है। ऐसा ही एक एह्सास था रेनू वर्मा का दायरा-ए-सुख़नवर में आना।
रेनू वर्मा से मेरा राब्ता फ़ेसबुक से हुआ मगर फ़ेसबुक एक ऐसा प्लेटफ़ार्म है जहाँ गुज़िश्ता छ: बरसों में मैंने कितने ही शायर/शायरात आते-जाते देखे हैं इसलिए फ़ेसबुक पे उनके आने को मैंने ज़्यादा तवज्जोह नहीं दी मगर उनका पहला मज्मुआ-ए-ग़ज़ल (ग़ज़ल संग्रह) ‘कैफ़ियत’ का हाथ में आना उनकी शिनाख़्त को और मजबूती देने वाला लगा।
आज तक कि ज़िन्दगी में मुझे शायरात में परवीन शाकिर ने सबसे ज़्यादा मुतआस्सिर (प्रभावित) किया या फिर अंजुम रहबर ने मगर आप रेनू वर्मा को भी नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकते। रेनू वर्मा की शाइरी में कहीं कच्चे एह्सासात हैं तो कहीं एक नसीहत करने वाली बुज़ुर्ग़। आम आदमी जहाँ जीने के लिए कम से कम एक अदद ख़्वाब को ज़रूरी मानता है, वहीं पे रेनू कहती हैं-
ज़िन्दगी कितनी ख़ूबसूरत है
ख़्वाब की भी नहीं ज़रूरत है
रेनू ख़्वाहिशात (ख़्वाहिशों) के समन्दर की क़ायल नहीं हैं बल्कि उनका मानना है कि वुसअत (विस्तार) भी मुख़्तसर हो जाती है तभी वो कहती हैं-
कर गया पार हँस के तूफ़ां को
प्यार में दरिया क़तरा होता है
अपनी ग़ज़ल में कभी-कभी रेनू बिलकुल लापरवाह हो के ये कहती हैं-
ख़्वाब है या नई बला है कोई
मेरी आँखों में चल रहा है कोई
और कभी इतनी परवाह है कि कहती हैं-
शह्र का शौक़ है हर वक़्त अदावत करना
और जुनूं मेरा है सबसे ही मोहब्बत करना
इसी परवाही और लापरवाही के बीच वो अपने फ़राइज़ (फ़र्ज़ों) से बेख़बर नहीं रहतीं। उनकी मोहब्बत के दायरे में शह्र ही नहीं, ख़ुद उनकी बेटी भी शामिल हैं और वो बेटी उनके लिए बेटों से ज़्यादा अहम है। रेनू वर्मा ने औरत के एह्सासात को ही नहीं बल्कि माँ के एह्सासात को भी बख़ूबी जिया और कहा-
क्या कहूँ कितनी भली है बेटी
क़द में बेटे से बड़ी है बेटी
वो सारे जहाँ को एक डोर में पिरोने की भी ख़्वाहिशमन्द हैं और शायद ये सोचती हैं कि सबकी ख़ुशनुदी तभी मुमकिन हैं जब लोग दिल से एक हों। इसी किताब ‘कैफ़ियत’ में एक जगह वो कहती हैं-
सारे गुलशन खिले हुए होंगे
दिल से दिल जब मिले हुए होंगे
रेनू को दुनिया की बैसिर-पैर और ऊलजलूल बातों से कोफ़्त भी होती है और ऐसी बातों का उन पर असर भी होता है तभी उनके क़लम से ऐसा शेर भी हो जाता है, जो ये कहता है-
लोग जीना मुहाल करते हैं
बे-तुके से सवाल करते हैं
रेनू की फ़िक्र और नज़र एक ज़ाविये के दोनों तरफ़ होती है तभी वो होश और बेख़ुदी दोनों को अच्छा समझती हैं और कहती हैं-
बेख़ुदी में होश को ढूँढा किए
होश में पर बेख़ुदी अच्छी लगी
रेनू की सोच मज़हब और वो भी सतही मज़हब से ज़रा अलग है। वो ख़ुदा की वहदानियत पे तो यक़ीं करती हैं मगर कर्मकाण्ड शायद ग़ैर ज़रूरी है उनकी नज़रों में-
यूँ तो करती नहीं इबादत मैं
जानती हूँ मगर ख़ुदा क्या है
रेनू की शाइरी ख़्वाब, प्यार, आँखें, सपने, मौसम जैसे अल्फ़ाज़ से बुनी हुई है। ग़ौर से मुतालेआ (अध्ययन) करने पर पाया कि उनके इस मज्मुआ-ए-ग़ज़ल ‘कैफ़ियत’ में कम अज़ कम 64 शेर तो ऐसे हैं जिनमें लफ़्ज़ दिल इस्तेमाल किया है। मेरा मानना है शाइरी ‘देखे से अनदेखे’ (ज्ञात से अज्ञात) की तरफ़ बढ़ती है इसी असास पर ये कहा जा सकता है कि अभी रेनू की शाइरी ‘देखे गए’ से शुरू हुई है मगर बहुत ही जल्द वो अनदेखे तक पहुँचेगी ज़रूर तब इनका असली हुनर ज़माने के सामने ज़रूर आएगा। रेनू की शाइरी की ज़बां उर्दू ज़रूर है मगर इतनी मुश्किल नहीं की लुग़अत (शब्दकोश) की मदद लेनी पड़े। आसानी से समझ आने वाले अशआर हैं जो कि इस मज्मुआ-ए-ग़ज़ल की ख़ासियत भी हैं।
किताब की प्रिन्टिंग और काग़ज़ अपनी हक़बयानी आप करते हैं और ये किताब एक वरक़ पर देवनागरी में है और दूसरे वरक़ पर उर्दू दोंनों में, इसलिए दोंनों ज़ुबानों के कारी (पाठक) के लिए है। मेरी जानिब से मोहतरमा रेनू वर्मा को नेक ख़्वाहिशात।
समीक्ष्य पुस्तक- कैफ़ियत
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- रेनू वर्मा
प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर
मूल्य- 175 रूपये
– फ़ानी जोधपुरी