आलेख/विमर्श
दाम्पत्य जीवन और दांपत्य अधिकारों की प्रासंगिकता
दांपत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन की प्रासंगिकता पर कुछ भी कहने से पूर्व हम ‘दांपत्य’ शब्द का अर्थ जानेंगे। दांपत्य वह है जो स्त्री और पुरुष दोनों को बंधन में बांधकर एक करता है। यह बंधन ‘विवाह’ कहलाता है एवं इसके बाद का जीवन दांपत्य जीवन कहलाता है। दंपत्ति यानि जोड़ा। स्त्री और पुरुष का जोड़ा, जिसे एक धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, नैतिक कानूनी, मान्यताओं, रीति-रिवाजों के आधार पर स्वीकृति प्रदान की जाती है। विवाह के उपरांत स्त्री और पुरुष पति-पत्नी बनकर जिस जीवन का निर्वाह करते हैं वह दाम्पत्य जीवन कहलाता है। दाम्पत्य जीवन एक धर्म है, आधार है, विश्वास है, प्रेम है, समर्पण है, प्रतिज्ञा है, पवित्रता है, और भी बहुत कुछ है जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
विवाह: पौराणिक पृष्ठभूमि
विवाह शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में होता है। इसका पहला अर्थ वह क्रिया, संस्कार या पद्धति है जिसमें पति-पत्नी के स्थायी संबंध का निर्माण होता है। प्राचीन काल से आधुनिक समय तक विवाह परिवार की स्थापना करने वाली एक पद्धति, एक नियम, एक बंधन है, एक परंपरा रही है। मनुस्मृति के टीकाकार मेधातिथि के अनुसार, “विवाह एक निश्चित पद्धति से किया जाने वाला, अनेक विधियों से संपन्न होने वाला और एक कन्या को पत्नी बनाने वाला एक संस्कार है।”
विवाह का दूसरा अर्थ समाज में प्रचलित एवं स्वीकृत विधियों द्वारा स्थापित किया जाने वाला दांपत्य संबंध और पारिवारिक जीवन भी होता है। इस संबंध से पति-पत्नी को अनेक अधिकार तथा कर्तव्यों की प्राप्ति होती है। अनादि काल से ही ‘विवाह’ संबंधी धारणा को सभ्य समाज द्वारा मान्यता प्रदान की गई है। सत्य सनातन धर्म में विवाह के बारे में विभिन्न धर्म ग्रंथों में विधिवत वर्णन है। विवाह एक पवित्र संस्कार है। हिंदू धर्म में 16 संस्कार माने गए हैं, जिनमें से विवाह एक प्रमुख संस्कार है।इस प्रकार चार आश्रम हैं-
1 ब्रह्मचर्य आश्रम
2 गृहस्थ आश्रम
3 वानप्रस्थ आश्रम
4 सन्यास आश्रम
इन चारों आश्रमों में भी गृहस्थाश्रम अत्यधिक महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह समाज का निर्माण करता है। जीवन से संबंधित सभी महत्वपूर्ण कार्य इसी गृहस्थ आश्रम में पूर्ण किए जाते हैं। इसी आश्रम में ‘सृजन’ यानि नव निर्माण संभव है। यहाँ निर्माण होता है नवजीवन का, सृष्टि का, संस्कारों का, मूल्यों का, नैतिकता का, प्रेम का, त्याग का, उन्नति का, भावनाओं का, कर्तव्य का, अधिकारों का, किं बहुना सृष्टि चक्र इसी दांपत्य जीवन पर आधारित है यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी।
ऋग्वेद के विवाह सूक्त 10/85, अथर्ववेद में14/1, 7/37 एवं 7/38 सूक्त में पाणिग्रहण अर्थात विवाह विधि, वैवाहिक प्रतिज्ञाएं, पति- पत्नी संबंध, योग्य संतान का निर्माण, गर्भाधान का शुभ मुहूर्त, दांपत्य जीवन, गृह प्रबंध एवं गृहस्थ धर्म का स्वरूप देखने को मिलता है जो विश्व की किसी अन्य सभ्यता में मिले, ऐसा संभव हो ही नही सकता।
दांपत्य-: वैज्ञानिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, शारीरिक, मानसिक आधार
यह हम सभी जानते हैं कि यौवन काल में विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण स्वाभाविक है। यह स्त्री और पुरुषों को शारीरिक और मानसिक संतुष्टि की ओर अग्रसर करता है। यह प्रकृति का नियम है। समाज में मर्यादा बनी रहे इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने युवावस्था में ‘विवाह’ का प्रावधान किया गया है। स्त्री और पुरुष एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। उन्हें शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक स्तर (कोई भी यज्ञ,धार्मिक कार्य बिना पति-पत्नी के पूर्ण नहीं होता। यहाँ तक कि भगवान को भी पत्नी के बिना यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। एक बार अश्वमेध यज्ञ जब श्री राम जी कर रहे थे तो सीता जी की अनुपस्थिति में उनकी प्रतिमा स्थापित की गई थी ताकि यज्ञ में पूर्णाहुति सपत्नीक दी जा सके) पर एक दूसरे का साथ चाहिए। जिस प्रकार शिव के साथ शक्ति है ,अर्धनारीश्वर का स्वरूप दोनों ही एकाकार हैं, उसी प्रकार दांपत्य जीवन में स्त्री और पुरुष हर हर क्षेत्र में एकाकार हो कर अधिकारों और कर्तव्यों का निर्वहन करते हैं। दोनों का मिलन सृष्टि का निर्माण करता है और परोक्ष रूप से सभी कर्म बंधनों का, सभी कार्यक्रमों का, सभी उद्योग धंधों का, विज्ञान- प्रौद्योगिकी का, सभी का संपादन भी यहीं से ही आरंभ होता है क्योंकि यदि ‘जीवन’ ही नहीं होगा तो यह सब कैसे संभव है?
दांपत्य अधिकार का प्रतिस्थापन और उसकी प्रासंगिकता:
दांपत्य जीवन एक अदृश्य बंधन है जिसमें अधिकतर अधिकार एवं कर्तव्य अलिखित अवस्था में पाए जाते हैं, या यूं कहें कि पूर्णतया हमारे संस्कारों पर ही निर्भर हैं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जैसे रामायण में भी श्रीराम के दांपत्य जीवन में यह सब बातें देखने को मिलती हैं। यानी दांपत्य जीवन का आधार पौराणिक काल से ही यही चला आ रहा है जो सर्वकालिक है Timeless है। ये सब आधार आज भी उतने ही महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक हैं जितने उस काल विशेष में हुआ करते थे। यह वे आधार हैं जो दांपत्य जीवन को दीर्घकालीन सुखी एवं संपन्न बनाने में सहायक हैं –
1 संयम
2 संतुष्टि
3 संतान
4 संवेदनशीलता
5 संकल्प
6 सक्षमता (शारीरिक-मानसिक)
7 समर्पण
वास्तव में देखा जाए तो यह सभी हमारे भाव हैं। इन्ही आधारों को लेकर ही हिंदू विवाह अधिनियम बनाए गए हैं तथा समय-समय पर उन में संशोधन भी किया जाता रहा है,जैसे आधुनिक हिंदू कानूनों के बनने से पहले बाल- विवाह तथा अंतर्जातीय विवाह पर प्रतिबंध था, बहु विवाह का प्रचलन था, विधवा विवाह निषेध था। परंतु समय के साथ-साथ सभी नियम कानूनों में बदलाव किए गए तथा इनमें से कुछ ऐसे बदलाव हैं जिन्हें क्रांतिकारी कहा जा सकता है- जैसे हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम 1965। जिसने विधवाओं को पुनः जीवन का,अपने स्वत्व को हासिल करने का, अपनी जिंदगी को अपने अनुसार जीने का, खुश रहने का, अपने बच्चों की देखभाल करने का, रंगीन सपने देखने का और अपनी दुनिया को भी रंगभरी बनाने का अधिकार दिया जो कि क़ाबिले तारीफ़ है।
1956 के हिंदू दत्तक एवं अनुरक्षण अधिनियम एक हिंदू पत्नी अपने पति द्वारा अनुरक्षण की अधिकारिणी है। दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 का संबंध भी पत्नी तथा बच्चों के अनुरक्षण से है।
घरेलू हिंसा अधिनियम 2005:
वैसे तो दांपत्य जीवन में कहीं भी हिंसा का स्थान नहीं होना चाहिए, परंतु यह संभव नहीं है। समाज में हर तरह के लोग रहते हैं ।स्त्री के लिए ही हमारे समाज में अधिकतर नियम, कानून बने हैं जिनसे पुरुष अछूता ही रह जाता है। यानी पुरुष को कुछ अधिकार जन्म से ही प्राप्त हैं। इनके बारे में हम सभी जानते ही हैं। इन्हीं अधिकारों का जब पुरुषों द्वारा गलत इस्तेमाल हुआ है तो स्त्रियों की सुरक्षा हेतु संसद में भारतीय महिलाओं को सशक्त करने हेतु कानून बनाया गया ताकि उन्हें परिवार के अंतर्गत किसी भी प्रकार की हिंसा से संरक्षण प्रदान किया जा सके। घरेलू हिंसा अधिनियम 2005 लागू किए जाने का विशेष कारण है ताकि भारतीय महिलाएं अपनी स्वयं की रक्षा कर सकें तथा इस कानून का सहारा लेकर आत्मसम्मान के साथ जीवन व्यतीत कर सकें। यह कानून महिलाओं को हर प्रकार के घरेलू हिंसा से (शारीरिक व मानसिक) संरक्षण प्रदान करता है तथा पारिवारिक सदस्यों तथा अन्य संबंधियो द्वारा उत्पीड़न व शोषण की जांच करता है। अब महिलाएं अपने शोषणकारी पति एवं उत्पीड़ित करने वाले संबंधियों के विरुद्ध कानूनी कदम उठा सकने में सक्षम हैं। हालांकि हिंदू विवाह अधिनियम 1955 में पारित किया गया एक कानून है। इसी कालावधि में तीन अन्य महत्वपूर्ण कानून पारित हुए। ये हैं –
1 हिंदू उत्तराधिकारी अधिनियम 1956
2 हिंदू अल्पसंख्यक तथा अभिभावक अधिनियम 1956
3 हिंदू एडॉप्शन तथा भरण पोषण अधिनियम 1956
इनके सभी नियम हिंदुओं के वैदिक परंपरा को आधुनिक बनाने के ध्येय से लागू किए गए थे। परंतु समय के साथ-साथ यह सब नियम कानून भावनाओं, प्रेम, समर्पण, त्याग, कर्तव्य, विश्वास आदि के स्थान पर केवल स्वार्थपरता, शारीरिक आकर्षण,आत्मसंतुष्टि ,आत्मोत्थान और स्वकेंद्रीकरण तक ही सीमित हो गया है। दांपत्य जीवन प्राचीन काल से ही हमारी पहचान रहा है, हमारी धरोहर रहा है। यहां प्रथम दंपत्ति भगवान शिव-पार्वती कहे जा सकते हैं। उसके बाद सीता-राम जी, कृष्ण-रुक्मणी, नल- दमयंती, सत्यवान-सावित्री आदि ऐसे उदाहरण हैं जिन्होंने लाख मुसीबत आने पर भी अपने जीवनसाथी को छोड़ा नहीं, धोखा नहीं दिया। परंतु आजकल की नई पीढ़ी संस्कारों के अभाव में केवल स्वयं तक ही सिमटती जा रही है। यहां तक कि अपने बच्चों के भविष्य के बारे में भी न सोचकर सिंगल पैरेंट बनते जा रहे हैं विभिन्न प्रकार के कानूनों का सहारा लेकर।
यह सत्य है कि नारी और पुरुष एक दूसरे के पूरक हैं तथा शारीरिक और मानसिक संतुष्टि पर भी दोनों का ही बराबर का अधिकार है। ऋषि वात्स्यायन ने भी कामसूत्र में दांपत्य जीवन के श्रृंगार रस का वर्णन किया है। परंतु आजकल की युवा पीढ़ी शारीरिक आकर्षण को ही सर्वस्व मानने लगी है। मानसिक सुंदरता, विचारों की सुंदरता, गुणों की सुंदरता फीकी पड़ने लगी है। हम याद करें अपनी दादी ,नानी केजमाने की शादियां जहां इतने बेमेल जोड़े हुए, शारिरिक मापदंड और स्वभाव,वातावरण के आधार पर ,कहीं पति इतना लंबा है तो पत्नी इतनी छोटी ,कहीं एक दूसरे के रंग रूप में इतना भारी अंतर होता था कि जो बच्चे होते थे उनको देखकर साफ पता लगता था यह बच्चा मां पर गया है और यह बच्चा बाप पर गया है। पति पत्नी की उम्र में भी बहुत अधिक अन्तराल पाया जाता था, 10 से 15 वर्षों तक का भी। यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहती हूं कि मैं भी व्यक्तिगत तौर पर कई ऐसे जोड़ों को जानती हूं जिन्होंने अपना दांपत्य जीवन बहुत ही सफलतापूर्वक जिया तथा अपने बच्चों को भी बहुत सुंदर शिक्षा दीक्षा देकर उन्हें समाज का एक जिम्मेदार नागरिक बनाया, जबकि उन दोनों के स्वभाव में बिल्कुल भी समानता नहीं थी। उस जमाने में शादियों से पहले लड़के को तो दिखाया ही नहीं जाता था। इसके बाद अति यह होती थी कि शादी के बाद भी सास-ससुर के सामने पति-पत्नी बात नहीं कर सकते थे। पत्नी, पति से ही घूँघट या पर्दा करती थी। अजीब से रीति रिवाज थे। बच्चे होने के बाद भी इन्हीं मर्यादाओं का पालन करना पड़ता था। परंतु फिर भी हमारी उन पौराणिक स्त्रियों ने इन सब का पालन करते हुए अपने परिवार को बनाया और सफल दांपत्य जीवन जिया। यहां पर यह बात विवाद उत्पन्न कर सकती है कि उस जमाने की बात और थी आजकल का जमाना ऐसा नहीं है, तो मैं भी इस बात का समर्थन करती हूं क्योंकि उस जमाने में स्त्रियां केवल घर पर ही रहती थी। उन्हें बाहर की दुनियां का कोई काम नहीं था। बाहर का जीवन उनके लिए था ही नहीं। परंतु क्या हम केवल एक पक्ष देखकर कुछ सीख नहीं सकते? अपने बच्चों के लिए, अपनी संतान के लिए। सभी को जीवन में सब कुछ नहीं मिलता। जो है उसमें भी रहकर जिया जा सकता है, जब बात हमारे बच्चों के भविष्य की हो। यदि हम अपना दांपत्य जीवन साथ नहीं बिता सकते तो अलग होने में कोई बुराई नहीं है परंतु जब बात बच्चों की जीवन की आती है तो कहीं न कहीं अपने स्वत्व को थोड़ा सा कम किया भी जा सकता है। यह मेरे स्वयं के विचार हैं अपवाद हर जगह मौजूद हैं। इसका एक ज्वलंत उदाहरण सायरा बानो और दिलीप कुमार जी कहे जा सकते हैं जिनकी आयु में लगभग 18 वर्षों का अंतर है तथा इन्हें संतान सुख प्राप्त नहीं हुआ। फिर भी इनका दांपत्य जीवन आदर्श, सुखी एवं संपन्न है।
हमारे इन कानूनों ने स्त्री जाति को अधिकार कुछ ज्यादा ही प्रदान कर दिए जिनसे इनका कुछ ज्यादा ही संरक्षण होने लगा है। इसका प्रभाव ये पड़ रहा है कि ये इन अधिकारों का गलत तरीके से प्रयोग करने लगी हैं। अपने अधिकारों के प्रति जागरुक होकर स्त्री होने का गलत फायदा उठाने लगी हैं तथा कानून का आश्रय लेकर गलत प्रकार से अपने परिवार को ही धमकाने भी लगी हैं। इसी आधार पर पुरुषों के अधिकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली अग्रणी संस्था सेव इंडियन फैमिली फाउंडेशन SIFF( Save India Family Foundation) ने हिंदू विवाह अधिनियम संशोधन बिल 2010 को अपने वर्तमान स्वरूप में पारित कराने की कोशिश की परंतु
इस बिल के संशोधन को तीखी आलोचना करते हुए नकार दिया गया।
परंतु वास्तव में अब संशोधन की आवश्यकता हमारे पूरे समाज को है, उसके मूल्यों को है, मान्यताओं को है, नैतिकता को है, मानवता को है। क्योंकि आज का समाज पश्चिमीकरण का अंधानुकरण करते हुए अपने धर्म की, अपनी भारतीयता, अपने भारतीय दर्शन, अपने भारतीय मानवीय मूल्यों को भूलता जा रहा है, जो हमारी सभ्यता और संस्कृति की पहचान रहे हैं। आज के संदर्भ में मुझे एक शेर याद आ रहा है –
“आज दिवस में तिमिर बहुत है जैसे हो सावन की भोर,
मानव तो आकाश की ओर, मानवता पाताल की ओर”
आज इस दाम्पत्य अधिकारों के प्रतिस्थापन की प्रसांगिकता का प्रश्न ही नहीं उठता, यदि हमने अपने धर्म, अपने मूल्य ,अपनी धरोहर, अपनी भारतीयता को संभाला होता। दांपत्य जीवन का आधार सदा से ही विश्वास, प्रेम, समर्पण, त्याग, सम्मान, निष्ठा, आपसी मेलजोल, संतुष्टि, संयम आदि गुण ही रहे हैं जो तब भी उतने ही मूल्यवान थे और आज के युग में तो इनकी ज्यादा प्रासंगिकता है क्योंकि इन्हीं
गुणों के आधार पर तो हम दाम्पत्य को, रिश्तो को,लगाव को, परिवार को, जीवन को बचा पाएंगे। अपनी आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित जीवन, प्रेममय वातावरण तभी तो प्रदान कर पाएंगे जब दाम्पत्य सुरक्षित होगा, परिवार सुरक्षित होगा। परिवार ही नहीं होगा तो बच्चे संरक्षण कहां प्राप्त कर पाएंगे? इसलिए समाज के प्रथम इकाई परिवार को संभालना आवश्यक है जिसके लिए आधार दांपत्य जीवन है इसीलिए दांपत्य का संरक्षण करते हुए समाज का, पूरे देश का संरक्षण संभव है।
निष्कर्ष:
निष्कर्षत; यही कहा जा सकता है कि जिस प्रकार सृष्टि का आधार स्त्री और पुरुष है, उसी प्रकार समाज का आधार ,परिवार का आधार दांपत्य जीवन है। यदि हम स्वयं इसका निर्वहन सही प्रकार से करेंगे तथा दूसरों को ऐसा करने की शिक्षा प्रदान करेंगे एवं स्वयं के आचरण से उदाहरण प्रस्तुत कर, अपनी आने वाली पीढ़ी को ऐसा करने की शिक्षा और अभिप्रेरणा देंगे तो आने वाला समाज हर दृष्टि से सुरक्षित होगा तथा नव भारत के निर्माण में अपना सक्रिय सहयोग प्रदान करेगा।
ग्रंथानुक्रमणिका :
1 हिंदू विवाह अधिनियम 1955 ,अधिनियम धारा 25 धारा 9 धारा 13
2 हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1955
3 हिंदू एडॉप्शन और भरण पोषण अधिनियम 1956
4 हिंदू अल्पसंख्यक तथा अभिभावक अधिनियम 1956
5 एक नजर में: हिंदू विवाह अधिनियम-देश बंधु
6 नए तलाक, कानून से बदल सकते हैं रिश्ते- (अमर उजाला)
7 विवाह की संसिद्धि
8 शून्य विवाह
9 शून्यकरणीय विवाह
10 विवाह अधिनियम संशोधन विधेयक 2010
11 हिंदू लॉ अधिनियम
12 इंटरनेट साइट्स
13 प्रवचन अवधेशानंद गिरी
– डॉ. विदुषी शर्मा