आलेख
दर्द जो छलकता रहा हर शब्द में
एक अतृप्त प्यास
– सफ़लता सरोज
सूफ़ियों का साधना पथ प्रेम-पथ है। प्रेम ही सूफ़ी मत का मेरुदण्ड। तस्सव्वुर में लिखा है- इश्क बनाता है, इश्क जलाता है। दुनिया में जो कुछ है इश्क का जलवा है। आग इश्क की गर्मी है, हवा इश्क की बेचैनी। मौत इश्क की बेचैनी है, जिन्दगी इश्क की होशियारी। रात इश्क की नींद है, दिन इश्क का जागरण। नेकी इश्क की क़ुर्बत है, गुनाह इश्क से दूरी। विहिश्त इश्क का शौक है, दोज़ख इश्क का जौक। अगर इश्क न होता तो इंतज़ाम आलमे-सूरत न पकड़ता।
चूंकि मैं यह पहले भी कह चुकी हूँ सूफी सुरेन्द्र चतुर्वेदी के ऊपर सूफ़ी मत का काफी प्रभाव है। उनकी हर एक ग़ज़ल सूफ़ियाना रंग में रंगी है और प्रेम जो सूफ़ी साधना का सार है, उनकी ग़ज़लों में बहुत शिद्दत से महसूस किया गया है, लिखा गया है।
वो इश्क को फ़क़ीरी, इश्क को अपना ख़ज़ाना मानते हैं-
मेरा इश्क फ़क़ीरी मेरी
तेरा इश्क ख़ज़ाना मेरा
सुरेन्द्र ने अपनी ग़ज़लों में प्रेम को मानव जीवन की सर्वाधिक प्रभावशाली व्यापक दिव्य शक्ति के रूप में महत्त्व दिया है। रूमी जहाँ प्रेम को शरीयत से उच्च मानते हैं, वहीं सुरेन्द्र उसे साक्षात ईश्वर ही मान लेते हैं। उनकी नज़र में प्रेम मनुष्य को देवत्व प्रदान करता है। इसलिए वो सूफ़ी संत के नीयत जैसा अपने इश्क को मानते हुए कहते हैं-
सूफ़ी संत के नीयत जैसा
मेरा इश्क अकीदत जैसा
मानव मन में जितनी भी वृत्तियाँ हैं, उनमें अत्यन्त गूढ़ वृत्ति है रागात्मिका वृत्ति। इस वृत्ति के द्वारा हम अपना नाता बाहरी जगत से जोड़ते हैं। यह नाता जोड़ना और कुछ भी नहीं अपनी ही आत्मा को विश्वव्यापक बनाने का अभ्यास और उद्योग है। यह वह तलाश है जो सत्यम् शिवम् से जुड़ी है-
ऐसा भी रूहानी मंज़र दिया मुझे
उसने अपनी खुशबू से भर दिया मुझे
प्रेम जीवन की वह शाश्वत और चिरंतर शक्ति है, जिसके भव्य भवन का निर्माण अनुभूति की ईंटों से हुआ। वह एक ऐसा अमर सत्य है, जिसका कभी अन्त नहीं होता। प्रेम चेतना का संस्कार है। यह एक भावना है, एक साधना है, एक उत्तुंग और ऊँचा गढ़ है-
तेरे वजूद से न ख़ुद को मैं जुदा देखूँ
सिवा तेरे भला मैं किसका आसरा देखूँ
भले ही रातें मेरी टूटकर भी जुड़ जाए
मगर न चाहूँ कभी ख्वाब दूसरा देखूँ
प्रेम के मर्म को वही समझ सकता है, जिसने अपने को मिटाकर अपने प्रिय को चाहा है; उसे तराशा है। भले ही वह असफल हुआ हो लेकिन प्रेम में जो तपता है उसका दुख व्यर्थ नहीं जाता। तभी तो उस प्रेम की आग में तप-तपकर ग़ज़लकार की हर ग़ज़ल स्वर्ण जैसी दमक रही है। यह सार्थकता जप, तप, ज्ञान, ध्यान, योग से नहीं आई। यह सार्थकता प्रेम से आई, प्रेम की आँच से पक-पक कर आई-
एक टुकड़ा ही सही पर आसमां मेरा भी था
उन दिनों की बात है जब ये जहां मेरा भी था
वो बुझाये मैं जलूँ ये कश्मकश दोनों में थी
इम्तिहां उसका तो था ही इम्तिहां मेरा भी था
ढूँढने वालों के नक्शे-पा मिले जिस रेत पर
गौर से देखा तो उसमें एक निशां मेरा भी था
सुरेन्द्र की हर ग़ज़ल में प्रेम का स्वरूप अत्यन्त सूक्ष्म और उसकी गम्भीरता से अगाध है। यद्यपि सुरेन्द्र प्रेम को जिस्म से शुरू होकर रूह तक पहुँचकर अपनी परिणति पाने वाला मानते हैं, फिर भी उनकी ग़ज़लों में पसरा प्रेम कहीं भी स्थूल नहीं, कहीं भी मांसल नहीं बल्कि वह ईश्वर पर्यन्त ऊँचा उठा है और समस्त विश्व का प्रेम शरीरोत्थ ईश्वर पर्यवसायी प्रेम में समाने लगा है। यह उनकी दृष्टि की व्यापकता है या व्यक्त्वि का स्पर्श…!! यह जो भी हो उनके काव्य को जीवन्तता ज़रूर प्रदान कर रहा है।
साथ कुछ सूखे हुए पत्ते उड़ाकर ले गया
वो मेरे ख्वाबों को पलको से चुराकर ले गया
कुछ दिनों के वास्ते ले जा रहा है ये कहाँ
और सारी उम्र को मेरा मुकद्दर ले गया
साँस का रिश्ता बदन से टूट जायेगा कभी
बस इसी एहसास को मैं अपने घर पर ले गया
उपर्युक्त पंक्तियों में एक प्रकार की उदात्तता है, गहराई है, व्यापकता है। संकीर्णता और ओछापन नहीं। भले ही लेखक प्रेम को शरीर से होकर रूह तक की यात्रा मानते हों लेकिन उनकी गजलों का अध्ययन करते वक्त मैंने प्रेम को जिस्मानी की जगह रूहानी ही पाया, जो उनके स्वयं के अन्तर्तम की वो पुकार लगी, जो भोग पर नहीं त्याग पर आधारित है, प्राप्ति से अधिक पीड़ा और व्यथा पर आधारित है, शरीर से अधिक सूक्ष्मता और भावनात्मकता पर आधारित है। संयोग की प्रणय केलियों हृदय स्पन्दनों पर आधारित है।
एहसास के लम्हों में जिस दिन मैं खुद से जुदा हो जाता हूँ
बाहर की भीड़ से बचने को भीतर तन्हा हो जाता हूँ
अल्फाज में ढलने लगते हैं जब-जब भी तसव्वुर के लम्हे
मैं शामिल कितने में लम्हों में, लम्हा-लम्हा हो जाता हूँ
मैं नहीं जानती यह अनुभूति उनकी स्वानुभूति प्रेरित है या कपोत कल्पित किन्तु ऐसा लगता है, जैसे यह दर्द; जिसकी संवेदना से उनका सम्पूर्ण काव्य स्पंदित हो रहा है, नितान्त निजी हो। भोगा हुआ सच ही इतना मार्मिक हो सकता है। आरोपित और कल्पित प्रणय निवेदन इतना मार्मिक और हृदयस्पर्शी नहीं हो सकता।
इक ख़ामोश झील की चुप्पी नहीं तोड़ पाया हूँ लेकिन
मैं उसके तट पर मांदों के नन्हे कंकड़ रख आया हूँ
साथ-साथ उड़ने के सपने तुमने मुझको जहाँ दिखाए
नोंचे हुए पंख मैं अपने उसी जगह पर रख आया हूँ
जितना मैं भूलूँगा उसको उतना ही वो याद करेगा
मैं उसके झोले में ऐसा जादू-मंतर रख आया हूँ
प्रेम के अमर गायक नीरज, प्रेम को जीवन को गति देने वाली शक्ति मानते हैं। सुरेन्द्र ने उसी शक्ति को सम्बल बनाया, जीने का आधार बनाया। ग़ज़लकार प्रेम को एक भावना मानता है। एक ऐसी भावना, जो भीतर है लेकिन उसका आकार बाहर है यानी प्रेम की भावना का सूक्ष्म बाह्य प्रयत्न है व्यष्टि और समष्टि से होकर ईष्ट तक पहुँचने का एक मार्ग। ये मार्ग अनंत है, यात्रा अंतहीन है, जिसकी शुरूआत तो है लेकिन कोई मंजिल नहीं।
मैं हर जनम में यही बात सोचता ही रहा
किस तरह मुझको वफ़ा का सिला नहीं मिलता
ज़िंदगी सबकी भटकती है मन के बीहड़ में
या तो मंजिल या कभी रास्ता नहीं मिलता
प्यार के बदले प्यार मिले ऐसा ज़रूरी नहीं, वफ़ा के बदले वफ़ा मिले ऐसा भी नहीं। वो लोग भाग्यशाली होते हैं, जिनको मंजिल मिल जाया करती है। यहाँ के ग़ज़लकार के हाथों में आया है एक खालीपन, तन्हाई, घुटन। फिर भी दिल उसे प्यार करता है, उसी के लिए तड़पता है, जिसकी उपेक्षा से दिल के टुकड़े-टुकड़े हो गये। जो मिल के भी न मिल सका, उसकी प्यास जीवन भर रही उस ग़ज़लकार के मन में-
बदन से होकर गुजरा रूह से रिश्ता बना डाला
किसी की प्यास ने मुझे दरिया बना डाला
थी प्यार की वो झील जिसमें तैरता रहा
फिर भी रहा मैं हर घड़ी प्यासा तमाम उम्र
प्रेम देह से परे है या देह तक ही…!! मैं नहीं जानती, मैं सिर्फ इतना जानती हूँ जो प्रेम करता है वो सिर्फ प्रेम ही करता है। प्रेम को बाँटे और परभाषित किये बिना ही। यहाँ ग़ज़लकार यह जानता है, जिसे वह प्रेम करता है वह स्वप्नवत् है। फिर भी वह उससे इतना प्रेम करता है कि कहीं वो उससे जुदा न हो जाए इसलिए स्वयं को अंधा ही बना डालता है-
मैं आंखें खोल दूँगा तो जुदा हो जाएगा मुझसे
यही एक खौफ था जिसने मुझे अंधा बना डाला
प्रेम जीवन को जीवंतता प्रदान करने वाली अमर संजीवनी बूटी है। प्रेम रहित जीवन उसी भाँति व्यर्थ है, जिस भाँति प्रेम रहित पूजा। प्रेम एक पवित्र तीर्थ यात्रा है, जिसमें ज़रूरत है विश्वास, समर्पण, भावना, श्रद्धा, एकनिष्ठता की किन्तु जिस प्रकार एक पत्थर भगवान नहीं होता, हर चौखट मंदिर का द्वार नहीं, ठीक उसी प्रकार हर प्यार करने वाला प्रेमी नहीं हो सकता। आज प्यार देह की नुमाइश की तरह एक नुमाइश, एक फैशन बनकर रह गया है। कपड़ों की तरह लड़के-लड़कियाँ बदलने वाला इंसान कभी प्यार नहीं कर सकता। हाँ, व्यापार ज़रूर कर सकता है। लेकिन प्यार व्यापार नहीं है, कोई खेल नहीं, कोई सोची-समझी रणनीति नहीं, प्यार प्यार है। यह कामान्धता या स्वार्थपरता में किसी का अहित नहीं करता। किसी के जीवन को अंधकारमय नहीं बनाता बल्कि यह वह रोशनी है, जो स्वयं के साथ-साथ जहान को रोशन करती है। प्रेम प्रतिशोध, बदले की भावना, ज़बर्दस्ती नहीं है यह एक भूख है, आत्मिक और सम्मानित भूख-
सवेरे की नदी का तट न छूना प्यार मत करना
ये संधि वर्जना की, मौन की है पार मत करना
आज हर तरफ नंगा नाच चल रहा है। बिस्तर से शुरू और बिस्तर पर खत्म होने वाली मौज-मस्ती को मैं प्रेम की संज्ञा नहीं दे सकती। न सड़क पर खड़े होकर हर लड़की के बदन को ताकने वाले लड़कों को प्रेमी, न ही सस्ते हथकंडे अपनाने वालों को प्रेमी युगल कह सकती। माना हर व्यक्ति को अपनी तरह से ज़िंदगी जीने का पूरा हक है लेकिन जिसमें किसी की भावना आहत हो, ऐसा उथलापन कवि को कभी पसन्द नहीं रहा। लेखक लिखता है-
तुम्हारी रूह उसके जिस्म की खुशबू न हो जब तक
किसी के जिस्म पर तब तक कोई अधिकार मत करना
वहाँ सूखे हुए दरिया की यारो रेत बिकती है
वहाँ तुम मछलियों का भूलकर व्यापार मत करना
प्रेम की जड़ें उथली नहीं, गहरी होती हैं और ये जीवन से इतनी गहराई से जुड़ी हैं- जैसे रात्रि से प्रभात, जन्म से मृत्यु। यह जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि और शाश्वत सत्य है-
इश्क आग का दरिया है
इम्तिहान में क्या-क्या कुछ
सच है इश्क आग का दरिया है, जिसको पार कर पाना बहुत कठिन है। लेकिन जिसने इसे पार कर लिया, उसने दुनिया को जीत लिया। जो काम तीरें-तोपें, बंदूक-गोलियाँ नहीं कर सकते वो काम प्रेम कर दिखाता है। मानव को मानव के समीप प्रेम ला सकता है। संसार के प्रत्येक कोने-कोने को प्रेम सींच सकता है। नफरत से नफरत को सिर्फ प्रेम ही मिटा सकता है।
सुरेन्द्र के काव्य का अध्ययन करते वक्त कई बार मुझे नीरज जी का स्मरण हो आया। वही तड़प, वही बेचैनी, वही पीड़ा, वही सोच, वही सरल अभिव्यक्ति। अगर मैं सुरेन्द्र को नीरज जी का समानार्थी कहूँ तो अतिशयोक्ति न होगी। वैसे ही फक्कड़पन, वैसी ही फ़क़ीरी। जितना नीरज ने प्रेम को जिया है, उतना ही सुरेन्द्र ने। जिस विस्तृत फ़लक पर नीरज प्रेम को ले गये और सारे जग को प्रेममय कर दिया वैसा ही सुरेन्द्र ने किया। दोनों ने प्रेम किया प्रेम की पीर को सहा, बदनामी सही, अपने ऊपर लगे विभिन्न गलत-सही आक्षेपों को सहा। फिर भी दोनों कहते रहे-
इतना हुए बदनाम हम तो ज़माने में
सदियां लगेंगी तुम्हें भुलाने में
– नीरज
माना ये के शापित चम्बल ना तू है ना मैं ही हूँ
लेकिन सच है कि गंगाजल, ना तू है न मैं ही हूँ
– सुरेन्द्र
लेकिन दोनों ही वो मजबूत चट्टान निकले, जिन्होंने हर ना-क़ामयाबी को क़ामयाबी में बदला। हर असफलता को सफलता में परिवर्तित किया। लोगों की आलोचनाओं, उपेक्षाओं की परवाह किये बिना ये अपनी ही धुन, अपनी ही रौ में बहते रहे। आज आलम ये है जो उँगली इन पर उठती थी, वही उँगलियाँ इनके मस्तक का अभिषेक करने को आतुर नज़र आती हैं। दोनों एक राह के ऐसे दो पथिक हैं, जो भोगी होकर भी योगी हैं। यहाँ तक कि प्रेम को भी दोनों ने एक रूप में ही परिभाषित किया। अन्तर?? अन्तर अभिव्यक्ति का नहीं अन्तर सिर्फ विधा का है।
सुरेन्द्र को संसार के कण-कण से प्रेम है। वो ऐसे समाज की परिकल्पना करते हैं जो ईर्ष्या, द्वेष, नफरतों से विलग हो। जहाँ सद्भावना हो, प्रेम हो, भाईचारा हो। इतना ही नहीं, जड़ हो या चेतन सभी को वो अपना मानते हैं। पशु-पक्षी, नदियाँ, पहाड़, सागर सभी से उनका संसार निर्मित है। सभी से वो कुछ न कुछ सीखते हैं। उनके दिल में अगर इतना प्रेम है तो वो इंसानों के साथ-साथ परिन्दों की सोहबत का ही नतीजा है-
छाँव में बैठकर शाखों से शरारत करना
हमने सीखा है परिन्दों से मोहब्बत करना
दरअस्ल सुरेन्द्र ने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम जिस विधा को चुना, उस विधा का अनिवार्य तत्व है प्रेम। यूँ तो उनकी कलम कई विधाओं पर चली पर ग़ज़ल उन्हें सर्वप्रिय है। यहाँ तक कि उन्होंने अपने आशियाने का नाम ही ‘ग़ज़ल’ रखा हुआ है। जिस तरह ग़ज़ल का नाम आते ही दुष्यंत कमार का नाम कौंधने लगता है यानि दुष्यंत उर्फ़ ग़ज़ल या ग़ज़ल उर्फ़ दुष्यंत, उसी प्रकार सुरेन्द्र और उनकी गजलें भी एक सिक्के के दो पहलू हैं। जब भी ग़ज़लों का कभी ज़िक्र होगा, उस ज़िक्र में सुरेन्द्र का नाम ज़रूर होगा।
इश्क को जब आवाज़ लगाई जाएगी
तब मेरी ग़ज़ल सुनाई जाएगी
इसलिए वो इश्क में ऐसे दिन ढूँढ़कर लाना चाहते हैं, जो जिस्मों को रूहानी ग़ज़ल सुनाए-
इश्क में ऐसे दिन भी ढ़ूंढ़कर लाऊँगा
जिस्मों को रूहानी ग़ज़ल सुनाऊँगा
किसी शाम को तुम जब मिलने आओगे
सूने घर में घी के दिये जलाऊँगा
सन्दर्भ सूची-
1. ये मुमकिन है समंदर सूख जाये- पृ. 57
2. वही- पृ. 37
3. अंजाम खुदा जाने- पृ. 32
4. वही- पृ. 81
5. परिन्दे पढ़ रहे हैं- पृ. 27
6. वही- पृ. 55
– सफ़लता सरोज