उभरते-स्वर
दर्द
अब तो
मजदूर और
किसान की ज़ुबान लिखूँगा
उनके बहते हुए
पसीने की कीमत लिखूँगा
सुबह उठने से लेकर
शाम तक मरने,
मर कर जीने
की भाषा लिखूँगा।
भूख से रिरियाते हुए
उनके बच्चे
एक साबून को
तरसती हुई
उनकी बीबियों की गाथा लिखूंगा।
तसला ढोते हुए
मजदूर,
खून से फसल को
सींचते हुए किसान
चूल्हे के सामने
अनाज की ताक में
बैठी हुई स्त्री ,
कटोरों को ठनकाते
हुए बच्चे,
उनके
पेट मे भूंख से
हो रहे दर्द
की कराह लिखूंगा।
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गाँव की हवा
तपती
दोपहरी में
गाँव के बीच
आम की छांव
बहुत भाती है,
कोयल की कूक
कच्चे आमों की चटनी
रोटी के साथ
बहुत भाती है।
गर्मी से
सनी हवा
पेड़ से मिलकर
शीतल हो जाती है,
सुला लेती है
अपने आँचल में
मधुर-मधुर
झोकों से
एक पहर की थकान
क्षण भर में
हर जाती है।
पेड़ के नीचे
छोटे-छोटे बच्चों की
लड़ाई
बहुत भाती है,
सोते हुए
लोगों की
नाक से निकलती
आवाज़
बहुत भाती है।
गाँव के
खेतों में
लगे गेहूँ की
पीली- पीली
बाली बहुत भाती है,
गोधूलि की
बेला में
चर कर
लौटते हुए
पशुओं की
चाल बहुत भाती है।
गाँव में
ढलते हुए
सूरज की
सिंदूरी शाम
बहुत भाती है,
गाँव की
छोटी-छोटी पगडण्डियां
और गाँव की
बाज़ार बहुत भाती है।
घर में
सबके साथ मिलकर
माँ के हाथ की
बनाई गयी
दाल बहुत भाती है,
रात में
दादी के साथ बैठकर
उनकी सुनायी
कहानी और
उनके पपले मुख से
निकली
आवाज़ बहुत भाती है।
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पर्यावरण
न करो
मेरा तिरस्कृत
मै हूं तुम्हारे
जीवन का साथी,
मत करो
मुझे तुम गंदला
मेरा दम
रह-रहकर
घुटता जा रहा है।
क्यों मारते हो
अपने पैरों पर कुल्हाड़ी
जो काटते हो
वृक्षों को,
क्यों
फेंकते हो पाॅलिथीन
बहाते हो
नदियों में कचरा
जो बनता है
तुम्हारे बीमारी की कारण।
ज़िन्दगी को
जीना चाहते हो
यदि खुशी से,
तो मत काटो
पेड़ों को
मत बहने दो
नदियों में
फैक्ट्रियों का
जहरीला कचरा।
बन्द कर दो
उन मिलों को
जिसके धुएं से
दूषित होती हवा ,
हटा दो
मोटरों को
जिनसे निकलती
तड़तड़ाती आवाजें
और दूषित धुआं।
तालाब खोदकर
गिरते हुए
जलस्तर को
जड़ से बचाओ,
पेड़ो को लगाकर
हवा को प्रदूषण से
मुक्ति दिलाओ।
बढ़ती
जनसंख्या पर
नियन्त्रण लगाओ,
बिगड़ते परिवेश को
बिखरती खुशी को
फिर से संजोओ।
जीवन है
खतरे में
जूझता है
संकट से
पर्यावरण तेरा,
यदि आवरण मे
रहते हो तो
थोड़ी दयाकर
मेरे अस्तित्व को बचाओ
– ओमप्रकाश अत्रि