थिएटर आज भी जिंदा है..तमाम मध्यवर्गीय लोगों के समान! – उमा झुनझुनवाला
थिएटर आज भी जिंदा है..तमाम मध्यवर्गीय लोगों के समान! – उमा झुनझुनवाला
कला, साहित्य और संस्कृति की नगरी कलकत्ता में जन्मी उमा झुनझुनवाला रंगमंच की दुनिया का जाना-पहचाना और प्रतिष्ठित नाम है। आपकी संस्था ‘लिटिल थेस्पियन’ एक अखिल भारतीय नाट्य संस्था है जो सांस्कृतिक तथा व्यावसायिक आधार पर रंगकर्म के लिए प्रतिबद्ध है l उमा जी नाट्य क्षेत्र में वर्ष 1984 से सक्रिय हैं तथा निर्देशन के साथ-साथ अभिनय, कविता, कहानी और नाट्य लेखन में भी समान रुचि रखती हैं। विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित उमा जी की कई पुस्तकें एवं अनुदित नाटक भी प्रकाशित हो चुके हैं। अपने संज़ीदा एवं भावनात्मक अभिनय से थिएटर जगत में विशिष्ट पहचान बनाने वाली उमा जी के साथ बैठकर मैंने महसूस किया कि संवेदनाओं को संप्रेषित करने के लिए सदैव शब्दों की ही जुगाली आवश्यक नहीं होती; उनकी भावप्रवण आँखें ही आधी कहानी कह देती हैं!
उनके कृतित्त्व की सूची जितनी लम्बी है उससे भी कहीं ज्यादा विशाल एवं ख़ूबसूरत उनका व्यक्तित्त्व है। पोर-पोर में स्नेह भरा हो जैसे! वे हर मायने में एक सच्ची, संवेदनशील अभिनेत्री हैं। सुन्दर, ख़ुशनुमा, पारिवारिक माहौल में उनके साथ हुई विस्तृत चर्चा के अंश हमारे पाठकों के लिए –
प्रीति ‘अज्ञात’ – एक रूढ़िवादी परिवार में जन्मी उमा का, लेखन और थिएटर से रिश्ता कब और कैसे जुड़ा?
उमा झुनझुनवाला – हाहा! सही कहा प्रीति! मेरा जन्म पारम्परिक रुढ़िवादी संयुक्त परिवार में हुआ। जहाँ सब वाणिज्य से जुड़े लोग हैं l परिवार में साहित्य की चर्चा ही नहीं थीl अपने खानदान में मैं ही भिन्न प्रवृत्ति की निकली जहाँ नृत्य, संगीत या नाटक आदि की अनुमति नहीं थी l
एक बड़ी मजेदार घटना है। माँ अब भी अक्सर हँसते हुए इसका ज़िक्र कर जाती है l मैं यही कोई छः-सात वर्ष की रही होऊंगी l माँ अपने फुरसत के क्षणों में कहानियाँ बहुत सुनाया करती थी। मैं उन कहानियों को सुनने के बाद अकेले में आईने के सामने खड़े होकर अपने पसंदीदा किरदार की नक़ल किया करती थी। वहाँ कोई दर्शक नहीं होता था, न ही कोई निर्देशक, मंच, लाइट, सेट! बस एक खाली कमरा होता था। निर्देशक, अभिनेता और दर्शक…सब मैं ही हुआ करती थी। तो आप कह सकती हैं जबसे होश संभाला है तभी से अभिनय से जुड़ गई थी। फिर इन कहानियों को सुन-सुन कर पढ़ने की इच्छा हमेशा प्रबल हुई l जब कविताओं और कहानियों को पढ़ने और समझने की बुद्धि आई तो अपने मन में उठने वाले भावों को लिखना शुरू किया l मेरी पहली पाठक मेरी माँ रही l माँ बड़ा खुश होती थी l तो आप कह सकती हैं कि लिखने की प्रेरणा माँ से ही मिली l कक्षा आठ में एक कविता लिखी थी, जिसे सभी लोगों ने पसंद किया l पहले किसी घटना से प्रभावित होकर लिखती थी l बीच में डायरी लिखने का शौक पैदा हुआ था l लेकिन उसमें बस रोज़ के दुःख की ही बात होती थी- किसने डांटा; क्या नहीं मिला; स्कूल में क्या हुआ…आदि आदि l कॉलेज और विश्वविद्यालय के माहौल ने मुझमें साहित्य के प्रति गंभीरता उत्पन्न की तो लिखने लगी।
प्रीति ‘अज्ञात’ – रंगमंच कुछ अधिक ही समय की माँग करता है पर अच्छी बात है कि इस सबके बीच भी आप लेखन को समय दे पा रही हैं। आपकी आगामी पुस्तकों एवं प्रकाशकों के अनुभव के बारे में बताएँ।
उमा झुनझुनवाला – अभी तक राजकमल प्रकाशन, वाणी प्रकाशन, साहित्य अकादेमी तथा ऑथर्स प्रेस से मेरे अनुवाद तथा एपीन प्रकाशन व ऑथर्स प्रेस से मेरे दो मूल नाटक प्रकाशित हुए और मेरे अनुभव अच्छे ही रहे हैं इन प्रकाशकों के साथ। दरअसल मैं ही बड़ी आलसी हूँ प्रकाशन के काम को लेकर; रंगमंच के कामों से ही फुरसत नहीं मिलती। नहीं तो देखिये न अभी मेरे पास दो और मौलिक नाटक लिखे हुए हैं और करीबन 8 अनुदित नाटक हैं। इसके अलावा बच्चों के 8 मौलिक नाटक, 10 कहानियाँ और लगभग 500 कविताएँ हैं जिन्हें प्रकाशित हो जाना चाहिए था। देखिये, शायद इस वर्ष दो मौलिक नाटक, दो काव्य-संग्रह और चार अनुदित नाटकों की पुस्तकें आप लोगो के समक्ष हों।
प्रीति ‘अज्ञात’ – आपकी संस्था ‘लिटिल थेस्पियन’ की अपनी एक विशिष्ट पहचान बन चुकी है। इसकी स्थापना, उद्देश्य एवं उपलब्धियों के बारे में विस्तार से बताइये।
उमा झुनझुनवाला – 90 में अज़हर से कलकत्ता विश्वविद्यालय में मुलाकात हुई थी। रंगमंच के प्रति दोनों का झुकाव था और इसी कारण हमारी मुलाकात बड़ी सृजनात्मक रही। हम साथ-साथ काम करने लगे और 94 में लिटिल थेस्पियन की स्थापना की। ये दौर आंदोलनों का दौर नहीं था l थोड़ी बहुत राजनीतिक उठापटक के अलावा समाज एक सीधी रेखा पर ही चल रहा था लेकिन टीवी सीरियलों का कुप्रभाव नज़र आने लगा था l सन 2000 के बाद तो हमने छात्र वर्ग के मध्य से साहित्यिक संगोष्ठियों के चलन का खात्मा भी देखा l हिंदी भाषियों में नाटक और रंगमंच अतीत की गाथा में सीमित हो कर रह गया था l लेकिन लिटिल थेस्पियन की साहित्यिक और सामाजिक सरोकारों से जुड़े नाटकों की लगातार प्रस्तुतियों ने हिंदी दर्शकों को एक बार फिर नया आस्वाद देने में सफलता हासिल की l लिटिल थेस्पियन का पहला नाटक ब्लैकसंडे था जिसके हमने 170 से भी ज़्यादा शो किये थे। पहले विद्यार्थियों की तरह एक क्रांतिकारी सोच हावी रहती थी कि बस किसी तरह लड़- मरकर दुनिया को बस बदल ही डालना है। इस सोच में व्यावहारिकता कम होती थी और जोश ज़्यादा, इसलिए नाटकों का चयन भी उसी प्रकार का होता था। तीन सालों तक ऐसा ही चलता रहा था। मगर लगातार नाटकों के अध्ययन ने हमारी विचारधारा को बदला और फिर 1999 में लोहार की प्रस्तुति के बाद हमारे काम करने के तरीके में सम्पूर्ण बदलाव आ गया। कई नाटक हैं – लोहार, बाल्कान की औरतें, पतझड़, नमक की गुडिया, शुतुरमुर्ग, महाकाल, प्रश्न-चिह्न, गैंडा, अलका, यादों के बुझे हुए सवेरे, रेंगती परछाईयाँ, कथा-कोलाज (जिसमें अब तक मैं 32 से भी अधिक कहानियाँ कर चुकी हूँ) ये मैंने उन नाटको के नाम लिए हैं जो सबसे ज़्यादा चर्चा में रहे और सराहे गए।
1994 में स्थापना के बाद शीघ्र ही लिटिल थेस्पियन ने भारतीय रंगमंच में अपने लिए एक अलग जगह बनाई है l फलतः समाज में कला और संस्कृति का विकास इस संस्था का मूल उद्देश्य है l इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु ये संस्था सिर्फ प्रेक्षागृहों तक ही सीमित नहीं है बल्कि विभिन्न इलाकों और कस्बों में जाकर खुले आँगन में भी रंगमंच के माध्यम से ये संस्था सामाजिक चेतना के नाटक समय समय पर प्रस्तुत करती रहती है।
लिटिल थेस्पियन की अब तक की उपलब्धियाँ :-
राष्ट्रीय नाट्य उत्सव ‘जश्न-ए-रंग’- कोलकाता में ये अपनी तरह का हिंदी का इकलौता नाट्य उत्सव है जो 2010 से लगातार आयोजित किया जा रहा है जिसमें थिएटर जगत की नामचीन हस्तियाँ तथा विख्यात नाटक देशभर से एक मंच पर एकत्रित होते हैं:
रंगमंच की प्रथम उर्दू-पत्रिका ‘रंगरस’ का प्रकाशन लिटिल थेस्पियन की एक और महत्वपूर्ण उपलब्धि है। देश में सभी भाषाओँ में कई कई पत्रिकाएँ मिल जाएँगी रंगमंच पर, मगर उर्दू भाषा में रंगमंच पर अलग से कोई पत्रिका नहीं है। रंगरस के अबतक 12 अंक आ गए हैं। रंगरस में नाटकों पर आलेख और रिपोर्टिंग के साथ साथ नाटकों को भी प्रकाशित किया जा रहा है। रंगरस को देशभर से बड़ी सराहना मिल रही है।
अभिनयात्मक पाठ की कार्यशाला- लिटिल थेस्पियन ने कहानी और कविता के पाठ में अभिनय पक्ष की महत्ता को एक आवश्यक अंग मानते हुए भारतीय भाषा परिषद के साथ मिलकर “कविता और कहानी का अभिनयात्मक पाठ” के प्रशिक्षण के लिए 2016 से तीन महीने का एक सर्टिफिकेट कोर्स प्रारम्भ किया है। कलकत्ता में यह कार्यशाला इकलौती कार्यशाला है।
बच्चों का रंगमंच बच्चों के द्वारा- बच्चों में रंगमंच की समझ विकसित करने के लिए हम बच्चों के लिए बच्चों द्वारा ही नाटक तैयार करवाते हैं। इसके तहत राजकुमारी और मेंढक, हमारे हिस्से की धूप कहाँ है, धरती जल वायु, शैतान का खेल, ओल-ओकून आदि नाटक काफी सफल रहें हैं।
प्रीति ‘अज्ञात’- इस संस्था की कार्य-प्रणाली के बारे में भी कहिए। कलाकारों को किस तरह का प्रशिक्षण दिया जाता है?
उमा झुनझुनवाला – हमारे यहाँ अभिनय से पहले कलाकारों को पर्दे के पीछे के ही सारे काम करने पड़ते हैं। कई महीनों के बाद उन्हें मंच पर आने का मौका मिलता है l मैं ख़ुद को सबसे पहले एक अभिनेता मानती हूँ, इसलिए अभिनय के नए-नए सोपानों को खोजने में तृप्ति का अनुभव करती हूँ | और इसीलिए चाहती हूँ कि मेरे साथ काम करने वाला अभिनेता भी इस तलाश को अपनाए। इसलिए हम अपने एक्टर्स को नहीं बताते कि उनके मूवमेंट्स क्या और कैसे होने चाहिए। चरित्र के मूड की चर्चा अवश्य करते हैं पर दृश्य की ज्योमेट्री बना कर नहीं। फिर कब एक्टर्स खुद ही अपने आप चलने लगते हैं कि उन्हें भी पता नहीं चलता। थोड़ी परेशानी होती है इसमें क्योंकि एक्टर्स बनी बनाई ज्योमेट्री पर चलने के आदी होते हैं। लेकिन हमारे इस तरीके में हर किरदार में ताजगी रहती है। उसे वो चरित्र खुद का लगने लगता है और इस वजह से चरित्र चित्रण मैकेनिकल नहीं स्वाभाविक लगता है। इसके साथ ही नाट्य कार्यशाला भी हम समय-समय पर करते हैं l बाल रंगमंच के अंतर्गत लिटिल थेस्पियन स्कूलों से संपर्क स्थापित कर बच्चों को निःशुल्क नाट्य प्रशिक्षण देता है और नाटक तैयार करवाता है जिसमें स्क्रिप्टिंग भी हम बच्चों से करवाते हैं l इसी तरह कॉलेजों में भी रंगमंच के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए वहाँ विद्यार्थियों को जोड़ते हैं l
प्रीति ‘अज्ञात’ – बहुत बढ़िया! आपके प्रशंसकों से जुड़ा कोई विशेष संस्मरण साझा करना चाहेंगीं?
उमा झुनझुनवाला – एक बार एक ऑफिस बेयरर घर पर एक चिट्ठी लेकर आया। रिसीट पर मैं दस्तख़त कर रही थी, तो उसने पूछा क्या आप वही उमा झुनझुनवाला हैं जिसका नाटक रेडियो में सुनाया जा रहा है? उन दिनों मेरा नाटक रेंगती परछाइयाँ रेडियो से प्रसारित हो रहा था। मैंने हैरानी से कहा हाँ, मैं वही उमा झुनझुनवाला हूँ। वह फ़ौरन दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा, “मैडम अद्भुत नाटक लिखा है आपने, हम सब लोग घर में नाटक का टाइम होते ही रेडियो सुनते हैं।” और उसके बाद वह अपनी शैली में नाटक की समीक्षा करता चला गया… इस घडी को मैं कभी नहीं भूल सकती। ये मेरे लिए सबसे बड़ा पुरस्कार था।
इसी तरह एक बार पूर्वांचल सांस्कृतिक केंद्र के एक कार्यक्रम के दौरान हुआ…मैं बतौर अतिथि आमंत्रित थी। कार्यक्रम का संचालन एक नौजवान कर रहा था। संचालन के दौरान उसने मेरी दो कविताओं का भी इस्तेमाल किया। मैं हैरान थी। संचालन के दौरान उसने कहा – नमस्ते! उमा मैम, आप मुझे नहीं पहचान रहीं, मैं आपके साथ फेसबुक पर जुड़ा हुआ हूँ। आपकी सारी कवितायें पढ़ता हूँ, बल्कि आपके सारे पोस्ट पढ़ता हूँ, आपकी कविताओं का फैन हूँ मैं। अब बताइए एक लेखक/कवि को और क्या चाहिए!
प्रीति ‘अज्ञात’ – सच, यही तो उनकी पूँजी है। कोलकाता में कला के प्रशंसकों की कमी नहीं! अन्य प्रदेशों में आपका अनुभव कैसा रहा? ग्रुप के साथ आना-जाना एवं अन्य व्यवस्थाओं में स्थानीय लोगों का कितना सहयोग मिल पाता है?
उमा झुनझुनवाला – छोटे शहरों और महानगर के दर्शकों का नाटक को देखने का नज़रिया बहुत ही अलग होता है। छोटे शहरों में दर्शक हमें छूना चाहते हैं, महसूस करना चाहते है। उन्हें शो के आरम्भ होने का बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता है। इसके विपरीत बड़े शहरों में नाटक देखना एक फैशन होता है..a cup of tea इस रंगयात्रा के दौरान कई जगहों पर अनूठे अनुभव भी हुए हैं। मैं शोलापुर की एक घटना का उल्लेख करती हूँ। राष्ट्रीय नाट्य उत्सव था। हम ‘लोहार’ नाटक लेकर गए थे। नाटक ख़त्म होते ही लोहारिन के नाम की जो गूँज उठी, वो मैं कभी नही भूल सकती और फिर दूसरे दिन हम नाटक देखने पहुंचे और दर्शकों ने हमें आते देखा तो हॉल में एक बार के लिए खलबली सी ये मच गई कि देखो काकू आया है, लोहारिन आई है और लोग बैठने के लिए अपनी सीटें हमें देने लगे थे। अद्भुत था वो सब!
पटियाला में तो एक बुज़ुर्ग नाटक ‘शुतुरमुर्ग’ ख़त्म होने के बाद मंच पर आये और उन्होंने अज़हर के पैर छू लिए। हम सब सकपका गए थे। उन्होंने कहा कि आज मेरा जीवन सार्थक हो गया।
और एक सबसे मजेदार घटना बताती हूँ आपको! ’यादों के बुझे हुए सवेरे’ का शो था, निर्देशन मेरा था, हमारे ही शहर में था। तत्कालीन गवर्नर श्री गोपाल कृष्ण गांधी भी आये हुए थे। इस नाटक में अज़हर ने बूढ़े शाहजहाँ का अभिनय किया था। पूरा हॉल अज़हर के अभिनय से अभिभूत था। नाटक ख़त्म होने के बाद जब अज़हर मंच से नीचे आया तो सामने मेरी माँ खड़ी थी। अज़हर उसी मेकअप में था और उसने माँ के पैर छू लिए। माँ एकदम से हडबडा गई। कहने लगी, “अरे आप तो बुज़ुर्ग हैं,ये आप क्या कर रहें हैं, आप मेरा पैर क्यूँ छू रहें हैं…आपने तो अपने शानदार अभिनय से हम सब को रुला दिया!” और जब अज़हर ने बताया कि मैं आपका दामाद…तो फिर माँ का चेहरा भी देखने लायक था और सब खिलखिलाकर हँसने लगे थे।
दर्शकों के साथ जुडी ऐसी बहुत सी घटनाएँ हैं जो रंगमंच के अभिमान को जगाती हैं। शायद उदयपुर की ही घटना है, एक बार एक शो के ख़त्म होने के बाद एक दर्शक ने लिफ़ाफ़े में ११००/ रुपए भिजवाये मंच पर ही, मगर अपना नाम नहीं बताया..कई वर्षों बाद बातचीत में पता चला ये राशि WZCC के वर्तमान निदेशक फुरकान साहब ने भिजवाये थे नाटक से खुश होकर! इसी तरह कलकत्ता में कई दर्शक मित्र हैं जो शो के बाद कुछ-कुछ सहयोग राशि भिजवा देते हैं। दर्शकों का यह व्यवहार रंगकर्मियों का हौसला बढ़ाता है।
प्रीति ‘अज्ञात’ – सर्वविदित है कि लेखन से संतुष्टि अवश्य मिलती है पर जीवन-यापन नहीं किया जा सकता। आप लेखन और रंगमंच दोनों में सक्रिय हैं। नाट्य मंच का भविष्य कितना उज्ज्वल है? इस क्षेत्र से सम्बंधित परेशानियों का भी ज़िक्र करें।
उमा झुनझुनवाला – परेशानियों का कोई अंत नहीं और शायद यही वजह है कि थिएटर आज भी जिंदा है तमाम मध्यवर्गीय लोगों के समान!
थिएटर में सिर्फ़ संघर्ष है और यही संघर्ष जिजीविषा को और तीव्र करता है… साँसे भी अगर सीधी सरल रेखा पर आ जाए तो जीव मृत घोषित कर दिया जाता है l तो रूकावटों, बाधाओं या परेशानियों से काम को हमेशा ज्यादा से ज्यादा मजबूती मिलती है, ऐसा मेरा मानना है l जीवन यापन न तो लेखन से संभव है और न ही थिएटर से…लोचा हर जगह है… हा हा हा… लोचा समझ रही हैं न… खेमेबाजी…हा हा हा…अब क्या तो वरिष्ठ और क्या तो कनिष्ठ… जिसकी जिसके साथ बन गई वही श्रेष्ठ… और उसी आधार पर आंकलन… सो राजनीति का अर्थ सिर्फ़ मोदी और राहुल ही नहीं है; राजनीति पसंद और नापसंद करने की नीति है जो हर क्षेत्र में है… इसलिए संतुष्टि से ही काम चलाना पड़ता है ज़्यादातर लोगों को। भविष्य को नकारात्मक तो किसी भी हाल में नहीं बनाया जा सकता न! कोख में पलने वाला बच्चा कैसा बनेगा ये कैसे कहा जाए, इसलिए अच्छे की उम्मीद बरक़रार है।
प्रीति ‘अज्ञात’ -. युवाओं में इस विधा की ओर रुचि एवं जिज्ञासा नज़र तो आती है पर उनका यह रुझान शौकिया या क्या सिर्फ फेम के लिए है? अथवा आप उनमें कला के प्रति समर्पण भी देखती हैं?
उमा झुनझुनवाला – नाटक का सम्बन्ध विशुद्ध साहित्य से होता है अर्थात नाटक हक़ीकी ज़िन्दगी का साहित्यिक आख्यान होता है जबकि फिल्मों के ज़रिए सपने बेचे जाते हैं। नाटक में फिल्मों की तरह सपनों का बाज़ार नहीं लगता कि दर्शक उमड़ कर आए और इसीलिए रंगमंच जैसी जीवंत विधा अब ज़्यादातर युवाओं के लिए मात्र एक साधन बन कर रह गई है फिल्मों तक पहुँचने के लिए… तो फिर समर्पण का भाव कहाँ से आए! राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय भी तो अब फिल्म उद्योग जगत के लिए अभिनेता उत्पन्न करने वाला एक टूल बॉक्स बन कर रह गया है। लाखों रुपये हर साल विद्यार्थियों पर खर्च किये जाते हैं। परिणाम क्या निकलता है…वे एनएसडीयन बाद में मुंबई के चक्कर काटते नज़र आते हैं, अपवादों को छोड़ दें!
प्रीति ‘अज्ञात’ – निर्देशन, अभिनय और संस्था के साथ -साथ इतनी विधाओं में लिखने का समय कैसे निकाल पाती हैं?
उमा झुनझुनवाला – समय को मैनेज कर पाना सच में बहुत मुश्किल होता है। अब देखिये न आपने कब प्रश्नावली भेजी थी मुझे और मैं कितने दिनों बाद जवाब देने का समय निकाल पाई। मेरी प्राथमिकताओं में सबसे पहले मेरा परिवार है, बच्चे हैं और मेरा थिएटर है। इन दोनों कामों में ही इतना वक़्त चला जाता है कि ख़ुद के बारे में भी सोचने की फुरसत नहीं मिलती। हाँ, जब समय मिलता है तब अपनी लाइब्रेरी में समय गुज़ारना पसंद करती हूँ और लेखन का काम तो चूँकि व्यवसाय नहीं है कि रोज़ लिखना ही है किसी अखबार के लिए या रेडियो के लिए; इसलिए जब मूड में कुछ होता है तो लिख लेती हूँ और कई बार लिख भी नहीं पाती और फिर वे भाव उड़ जाते हैं और फिर कोई कविता या कहानी बनते बनते रह जाती है।
प्रीति ‘अज्ञात’ – आपके अनुसार ‘स्त्री’ होने के क्या मायने हैं?
उमा झुनझुनवाला – स्त्री होना सृष्टि होना है मेरे लिए। २१वी सदी महिलाओं के बहुआयामी प्रतिभाओं की सदी है, जागरूकता और दावेदारी की सदी है। समाज, राजनीति और कला सहित जीवन का कोई भी क्षेत्र महिलाओं के बिना अधूरा ही है।
प्रीति ‘अज्ञात’ – वर्तमान परिवेश में आप महिलाओं की स्थिति को किस रूप में देखती हैं?
उमा झुनझुनवाला – अपने नाटक रेंगती परछाइयाँ की भूमिका में मैंने लिखा है, “…स्त्रियों का सत्य वही नहीं है जो हमें पढ़ाया या दिखाया जाता है या कहूँ हम पर थोपा जाता है l सत्य को खुबसूरत शब्दों के लिबास में लपेट कर प्रस्तुत किया जाता है जबकि व्यवहारिक तौर पर उसकी स्थिति बड़ी घृणास्पद होती है l स्त्री होना और स्त्री होकर जीना ही स्त्री होना नहीं होता l
आमतौर पर स्त्रियों की मानसिक स्थिति गज़ब की मजबूत होती हैं। इसलिए सारे अत्याचार, बलात्कार आदि सहन करती जाती हैं। चूँकि जीवविज्ञान के अनुसार शारीरिक रूप से स्त्रियाँ पुरुषों से कम मजबूत होती हैं; भारतीय सामाजिक विज्ञान में परवरिश चैप्टर में उन्हें और कमज़ोर बना दिया जाता है। मैं हमेशा सोचती हूँ स्त्रियाँ अगर कमज़ोर होती हैं तो क्यों? माँ के गर्भ से ही तो कमज़ोर पैदा नहीं होती। अपने कमज़ोर जन्म के लिए वो तो दोषी नहीं हो सकती! तब ये सवाल उठना चाहिए कि किसने सबसे पहले स्त्री का जीवन कमज़ोर बनाया? माना कुछ तो कुदरती कारणों से वे शारीरिक रूप से पुरुषों से कम होती हैं लेकिन क्या वे मजबूत नहीं बनाई जा सकतीं? किस के छल कपट का शिकार बन स्त्री अपना बोझ सर पे लादे नरक यंत्रणा सहती हैं? ऐसी स्त्रियाँ ही जानती हैं कि उनका जीवन कितना असहनीय होता है? दरअसल स्त्रियों को बचपन से ही छुपाना सिखा दिया जाता है; अमुक बात होने पर किस तरह चुप रहना है तो अमुक को फलाना बात नहीं बतानी है। किसी भी प्रकार के शारीरिक शोषण होने पर किसी से भी ज़िक्र तक नहीं करना है क्योंकि बदनामी का डर माथे से चिपका रहता है।
अपने आसपास या मुझसे जुडी ऐसी कई स्त्रियाँ हैं जो स्त्री होना अभिशाप मानती हैं | व्यक्तिगत तौर पर मैं लिंग-भेद के दृष्टिकोण से किसी भी विषय या चर्चा की पक्षधर नहीं हूँ…लेकिन उसके बावजूद एक स्त्री होने के नाते किसी भी सृजन की प्रसव पीड़ा से ठीक उसी तरह अवगत हूँ जैसे एक माँ होती है। उस पीड़ा को पुरुष समाज अलग अलग धरातल पर काव्यात्मक ढंग से महसूस कर उसे वर्णित तो कर सकता है किन्तु हर औरत के लिए उस पीड़ा की अनुभूति सामान्य तौर एक जैसी ही होती है। उदाहरण स्वरुप मैं रंगमंच को ही लूँ तो अक्सर देखती हूँ किसी औरत या लड़की का नाटक करने जाना ही उसके पिता/पति के परिवारवालों के लिए स्वीकार्य नहीं हो पाता है कि मंच पर जाकर लोगो के सामने अभिनय करना, नाचना गाना वगैरह वगैरह अधर्म होता है, किसी तरह जाने की स्वीकृति मिल जाए तो और दूसरे पचासों सवाल सुरसा राक्षसी की तरह मुंह बाये खड़ी रहती हैं – मसलन- डायरेक्टर कौन है, रोल क्या है, समय पे घर आ जाना, आज देर क्यों हो गयी, फलाने एक्टर के साथ किस तरह का दृश्य है, रोज़ रोज़ जाना ज़रूरी है क्या?
और अगर शादीशुदा है तो – घर की सारी जिम्मेदारियां तय वक़्त पे ही पूरी होनी चाहिए, रात को देर से आओगी तो खाना कैसे बनेगा, बच्चों की पढाई का कौन ध्यान रखेगा, फलाने मर्द के साथ क्यों आई, दृश्य में दूरी बना के रखो, फलाने के साथ तुम्हारा क्या सम्बन्ध है, आदि आदिl उफ्फ्फ… ये सारे सवाल सिर्फ स्त्रियों के लिए ही होते हैं इसलिए इनका संघर्ष दोहरा होता है और पीड़ादायक भी होता है।
लेकिन समय के साथ समाज में ये विमर्श होने लगा है कि वर्तमान परिस्थितियों में परिवर्तन लाये बिना समाज का विकास संभव नहीं और इसके लिए औरतों को भी समाज की संपूर्ण कलात्मक गतिविधियों में हिस्सा लेने की पूरी स्वाधीनता होनी चाहिएI पुरुष अपने विचारों और संस्कारों को साहित्य और कला के माध्यम से प्रकट करता है, उसी प्रकार स्त्रियों को भी अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति की स्वाधीनता होनी चाहिए| तो इसका अर्थ ये हुआ स्त्री की विशिष्ट ताकत की अपनी पहचान है|
प्रीति ‘अज्ञात’ – क्या आप अपनी अब तक की जीवन यात्रा से संतुष्ट हैं? रंगमंच और लेखन के बाद अब क्या?
उमा झुनझुनवाला – संतुष्ट होना तो कलाकार के खून में ही नहीं होता मित्र… वह तो हमेशा कुछ और बेहतर पाने की बेचैनी लिए भटकता रहता है |
लेखन और रंगमंच में नए-नए फॉर्म की तलाश रहेगी, सीखना और सिखाना प्राथमिकता में रखकर रंगमंच के विकास में सहयोग देना है क्योंकि रंगमंच, मनोरंजन का वह साधन है जो साहित्य के माध्यम से दर्शकों की मानसिक रूचि का परिष्कार कर उन्हें समाज और परिवार के प्रति जागरूक बनाता है।
प्रीति ‘अज्ञात’ – हमारे पाठकों एवं कलाप्रेमियों को क्या कहना चाहेंगीं?
उमा झुनझुनवाला – समाज के प्रति हर व्यक्ति का दायित्व होता है। मैं सिर्फ़ यही कहना चाहूँगी कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं बल्कि अपने समाज को मजबूत करने के लिए साहित्य से और रंगमंच से जुड़ना आवश्यक है ताकि हमारी सांस्कृतिक और सामाजिक परम्परा सुदृढ़ हो।
– प्रीति अज्ञात