आलेख
त्रिपुरा का भाषिक परिदृश्य
– वीरेन्द्र परमार
त्रिपुरा पूर्वोत्तर का छोटा पर सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण राज्य है। महाभारत एवं पुराणों में त्रिपुरा का उल्लेख मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि इन तीन नगरों का निर्माण असुर शिल्पकार माया के द्वारा किया गया था। ‘त्रिपुरा’ नाम के संबंध में विद्वानों में मतभिन्नता है। इसकी उत्पत्ति के संबंध में अनेक मिथक और आख्यान प्रचलित हैं। कहा जाता है कि राधाकिशोरपुर की देवी त्रिपुरसुंदरी के नाम पर त्रिपुरा का नामकरण हुआ। एक अन्य मत है कि तीन नगरों की भूमि होने के कारण ‘त्रिपुरा’ नाम रखा गया। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि मिथकीय सम्राट त्रिपुर का राज्य होने के कारण इसे त्रिपुरा अभिधान दिया गया। कुछ विद्वानों का अभिमत है कि दो जनजातीय शब्द ‘तुई’ और ‘प्रा’ के संयोग से यह नाम प्रकाश में आया, जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘भूमि’ और ‘जल’ का मिलन स्थल। ‘राजमाला’ के अनुसार त्रिपुरा के शासकों को ‘’फा’ उपनाम से संबोधित किया जाता था, जिसका अर्थ पिता है। त्रिपुरा को अनेक बार मुगलों के बर्बर आक्रमण का सामना करना पड़ा। मुगलों ने त्रिपुरा को खूब लूटा, वहाँ की जनता पर अत्याचार किये और भारी कर लगाकर जनता की आर्थिक स्थिति दयनीय बना दी।
19 वीं शताब्दी में महाराजा वीरचंद्र किशोर माणिक्य बहादुर के शासन काल में त्रिपुरा में नए युग का सूत्रपात हुआ। उनके उत्तराधिकारियों ने 15 अक्टूबर 1949 तक त्रिपुरा पर शासन किया। इसके बाद यह भारत संघ में शामिल हो गया। त्रिपुरा एक प्राचीन हिन्दू राज्य था और 15 अक्टूबर 1949 को भारत संघ में विलय से पहले 1300 वर्षों तक यहाँ महाराजा शासन करते थे। राज्यों का पुनर्गठन होने पर 01 सितम्बर 1956 को त्रिपुरा केंद्रशासित प्रदेश बना। उत्तर-पूर्व पुनर्गठन अधिनियम 1971 के अनुसार त्रिपुरा के लोगों के निरंतर प्रयासों और संघर्ष के कारण 21 जनवरी 1972 को इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। उन्नीस आदिवासी समूह त्रिपुरा के समाज को वैविध्य1पूर्ण बनाते हैं जिनमें प्रमुख हैं – त्रिपुरी, रियांग, नोआतिया, जमातिया, उचई, कुकी, भूटिया, लेपचा, ओरंग, चैमल, चकमा, हलाम, मोग, गारो, लुशाई, संताल, भील, खसिया, मुंडा इत्या दि । त्रिपुरा की जनसंख्या की सामाजिक संरचना विविधतापूर्ण है। यहाँ की लगभग एक तिहाई आबादी आदिवासियों की है। इस प्रदेश के पास उन्नत सांस्कृघतिक विरासत, समृद्ध परंपरा, लोक उत्सइव और लोकरंगों का अद्धितीय भंडार है।
बंगला और कोकबोरोक त्रिपुरा की राजभाषा है । शिक्षा के क्षेत्र में यहाँ त्रिभाषा सूत्र लागू है जिसके अंतर्गत अध्ययन का क्रम इस प्रकार है :
1.बंगला, अंग्रेजी, हिंदी या लुशाई प्रथम भाषा के रूप में I
2.बंगला या अंग्रेजी द्वितीय भाषा के रूप में I
3.सातवीं और आठवीं कक्षा में हिंदी या संस्कृत और नवीं तथा दसवीं कक्षा में संस्कृत, पाली, अरबी, फारसी या हिंदी तृतीय भाषा के रूप में I कक्षा एक से दसवीं तक शिक्षा का माध्यम सामान्यतः बंगला है I राज्य की सेवाओं में भर्ती परीक्षा का माध्यम अंग्रेजी और बंगला है I राज्य की सेवाओं में प्रवेश के लिए राज्य की राजभाषाओं का ज्ञान अनिवार्य नहीं है I यहाँ अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं जिनमें बंगला, कोकबोरोक, चकमा, लुशाई, मुंडारी, गारो, कुकी प्रमुख हैं I हिंदी भी व्यापक रूप से यहाँ बोली जाती है I चकमा समुदाय द्वारा चकमा भाषा बोली जाती है I चकमा भाषा में इंडो-आर्यन, तिब्बती – चीनी और मुख्य रूप से अराकान भाषा के शब्दों का मिश्रण है। उनकी भाषा को टूटी-फूटी बंगला और असमिया भाषा भी कहा जाता है। चकमा भाषा के पास अपनी बर्मी लिपि है लेकिन उनका उपयोग नहीं होता है I येलोग बंगाला लिपि का उपयोग करते हैं I गारो समुदाय के लोग गारो भाषा बोलते हैं I गारो भाषा की असम में बोली जानेवाली बोडो कछारी, राभा, मिकिर आदि भाषाओँ से बहुत समानता है। भाषिक दृष्टि से गारो भाषा तिब्बती – बर्मी परिवार की भाषा है I ग्रियर्सन ने इसे बोडो वर्ग की भाषा बताया है I हलाम समुदाय के लोग अपनी हलाम भाषा बोलते हैं I जातीय रूप से हलाम समुदाय कुकी -चिन जनजाति मूल के हैं । उनकी भाषा भी कमोबेश तिब्बती – बर्मी परिवार की तरह ही है। हलाम को ‘मिला कुकी’ के रूप में भी जानते हैं लेकिन भाषा, संस्कृति और जीवन शैली की दृष्टि से हलाम समुदाय कुकी जनजाति से बिल्कुल भिन्न है I जमातिया समुदाय के लोग कोकबोरोक भाषा बोलते हैं I मुंडा प्रोटो-ऑस्ट्रलॉइड जनजाति हैं। उनकी भाषा मुंडारी है जो ऑस्ट्रो-एशियाई परिवार से संबंधित है। ओरंग जनजाति के लोग टूटी-फूटी हिंदी में बात करते हैं I इनकी भाषा आस्ट्रेलियन भाषा समूह की भाषा है लेकिन त्रिपुरा में वे अपनी भाषा में बात नहीं करते हैं, वे हिंदी मिश्रित बंगला भाषा बोलने में सहज महसूस करते हैं।
जातीय रूप से त्रिपुरी समुदाय भारतीय – मंगोलियाई मूल के और भाषाई रूप से तिब्बती – बर्मी परिवार के हैं । वे कोकबोरोक भाषा बोलते हैं और लिखने के लिए बंगला लिपि का उपयोग करते हैं I त्रिपुरी समुदाय का एक वर्ग बंगालियों के संपर्क में आया जिसके कारण उसकी भाषा और संस्कृति पर बंगालियों का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है I कोकबोरोक भाषा बोरोक समुदाय की मातृभाषा है I बोरोक को त्रिपुरी भी कहा जाता है I बोरोक समुदाय की नौ उपजनजातियों अथवा कुल के लोगों द्वारा कोकबोरोक भाषा बोली जाती है I ये उपजनजातियां अथवा कुल हैं – देबबर्मा, रियांग, जमातिया, त्रिपुरी, नोआतिया, कलई, मुरासिंग, रूपिनी और उचई I वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार कोकबोरोक बोलनेवालों की संख्या 8,80,537 (कुल जनसंख्या का 23.97 %) है I इस भाषा के पास गौरवमयी सांस्कृतिक परंपरा और समृद्ध लोकसाहित्य है I वर्ष 1897 में दौलत अहमद द्वारा प्रथम कोकबोरोक व्याकरण लिखा गया जिसका नाम “कोकबोरोमा” था I इसके बाद 1900 ई. में राधा मोहन ठाकुर की कोकबोरोक व्याकरण पुस्तक “कोकबोरोकमा” शीर्षक से प्रकाशित हुई I राधा मोहन ठाकुर की व्याकरण पुस्तक को त्रिपुरा सरकार ने प्रथम कोकबोरोक प्रकाशन के रूप में मान्यता दी है I
कोकबोरोक त्रिपुरा में बोली जानेवाली वृहत चीनी – तिब्बती परिवार के बोडो – गारो उपवर्ग की भाषा है I पड़ोसी देश बांग्लादेश में भी यह बोली जाती है I असम की बोडो, दिमासा और कछारी भाषाओं से कोकबोरोक की बहुत निकटता है I ‘कोक’ का अर्थ भाषा और ‘बोरोक’ का अर्थ ‘मनुष्य’ है I इस प्रकार ‘कोकबोरोक’ का अर्थ मनुष्य की भाषा है I पहले ‘कोकबोरोक’ को ‘तिप्रा’ कहा जाता था I बीसवीं शताब्दी में इसका नाम परिवर्तन हुआ I पहली शताब्दी से कोकबोरोक के साक्ष्य मिलते हैं जब से तिप्रा राजाओं के ऐतिहासिक अभिलेख लिखे जाने लगे । कोकबोरोक की लिपि को “कोलोमा” कहा जाता था। राजरत्नाकर नामक पुस्तक मूल रूप से कोकबोरोक भाषा और कोलोमा लिपि में लिखी गई थी। बाद में दो ब्राह्मण, सुक्रेश्वर और वनेश्वर ने इसका संस्कृत में अनुवाद किया और फिर 19 वीं शताब्दी में इसका बंगला भाषा में अनुवाद किया गया । वर्ष 1979 में त्रिपुरा सरकार द्वारा कोकबोरोक को त्रिपुरा राज्य की आधिकारिक भाषा घोषित किया गया । इसके बाद 1980 के दशक से त्रिपुरा के स्कूलों में प्राथमिक स्तर से उच्च माध्यमिक स्तर तक इसकी पढ़ाई होने लगी। त्रिपुरा विश्वविद्यालय में वर्ष 1994 से कोकबोरोक में सर्टिफिकेट कोर्स और 2001 में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा कोर्स शुरू किया गया । त्रिपुरा विश्वविद्यालय द्वारा वर्ष 2015 से कोकबोरोक में एमए का पाठ्यक्रम शुरू किया गया । कोकबोरोक भाषाभाषियों द्वारा इस भाषा को संविधान की 8 वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग निरंतर की जा रही है । कोकबोरोक एक भाषा नहीं है बल्कि त्रिपुरा में बोली जाने वाली कई भाषाओं और बोलियों का मिश्रण है।
त्रिपुरा की सभी भाषाओँ में लोकसाहित्य का अक्षय भंडार उपलब्ध है I जितना प्राचीन यहाँ का जनजातीय जीवन है उतना ही प्राचीन यहाँ के लोक गीत हैं I ये लोकगीत लोक परंपरा में कई युगों से जीवित हैं। त्रिपुरी लोक गीत अन्य सभी लोक गीतों की तरह इस क्षेत्र के सभी समुदायों में व्यापक रूप से लोकप्रिय हैं। इन गीतों की रचना उनके सामूहिक जीवन के शुरुआती दिनों में उन व्यक्तियों द्वारा की गई थी जिनकी पहचान अज्ञात है। लोकगीत पुरानी परंपराओं, विचारों, इच्छाओं, प्रेम, झूम खेती, कटाई, त्योहारों, विश्वासों और अंधविश्वासों आदि पर आधारित हैं। ये गीत कई युगों से बिना किसी विचलन के मूल रूप में गाए जाते हैं अथवा बहुत कम बदलाव के साथ गाए जाते हैं I लोगों की जिह्वा पर बैठे लोकगीत अनायास ही फूट पड़ते हैं । त्रिपुरी गीतों की धुन पूरी तरह उनकी परंपरा पर आधारित है। आजकल हिंदी की धुन की नकल पर अनेक कोकबोरोक गीत गाए जाते हैं । वास्तव में इन पारंपरिक लोकगीतों की रचना से जुड़े व्यक्तियों की पहचान करना असंभव है। इन गीतों से समाज के प्राचीन विधान, परिवेश और आजीविका की झलक मिलती है। इन गीतों में समाज की इच्छा, उपलब्धियों, दुख, खुशी और अन्य छोटी-छोटी बातों पर प्रकाश पड़ता है। त्रिपुरा के लोकगीत यहाँ के निवासियों की बहुपक्षीय तस्वीर और सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक संरचना को चित्रित करते हैं। कोकबोरोक का लोक साहित्य काफी समृद्ध है। इन लोकगीतों में गहरा विचार और कल्पना की ऊँची उड़ान होती है। किसी भी धार्मिक या सामाजिक अवसर पर इन गीतों की सहज प्रस्तुति से विदित होता है कि त्रिपुरी समाज के पास लोकगीतों की रचना करने और उसे गुनगुनाने की जन्मजात क्षमता होती है। गांव की भोली लड़कियां गीतों और कहानियों के माध्यम से अपनी कल्पना, प्यार और दुःख को व्यक्त करती हैं। त्रिपुरी माताएं अपने गीतों के माध्यम से अपनी बेटियों, बहुओं और दामादों को शिक्षा देती हैं। युवाओं और बच्चों को कहानियों के माध्यम से नैतिक पाठ पढ़ाए जाते हैं। त्रिपुरा की हरी – भरी घाटी, नदी तट, पर्वत मालाएँ और घास के मैदान त्रिपुरा की लड़कियों के मधुर और रमणीय गीतों से गूंजते हैं। गीतों के साथ मधुर बांसुरी (सुमुई-बंशी) के स्वर वातावरण को रमणीय बना देते हैं ।
– वीरेन्द्र परमार