तू खुदी से अपनी बेखबर है !
हमारे युवा-वर्ग को विरासत में जो भारत मिलने वाला है उसकी छवि निराशाजनक है। सन् 1947 में भारत और भारतवासी विदेशी दासता से मुक्त हो गये। भारत के संविधान के अनुसार हम भारतवासी प्रभुता सम्पन्न गणराज्य के स्वतन्त्र नागरिक है। जिन संकल्पों को लेकर हमने 90 वर्षों तक अनवरत संघर्ष किया था क्या उन संकल्पों को हमने पूरा किया है? हमारे अन्दर देश भक्ति का अभाव है। देश की जमीन और मिट्टी से प्रेम होना देशभक्ति का प्रथम लक्षण माना जाता है।
कभी राजनीति के नाम पर नित्य नए विभाजनों की माँग करते रहते हैं। कभी हमें धर्म के नाम पर सुरक्षित स्थान चाहिए तो कभी अल्पसंख्यकों के वोट लेने के लिए संविधान में विशेष प्रावधान की माँग करते हैं। सन् 1947 में देश के विभाजन से सम्भवतः विभाजन-प्रक्रिया द्वारा हम राजनीतिक सौदेबाजी करना सीख गए हैं। आपातकाल के उपरान्त एक विदेशी राजनयिक ने कहा था कि भारत को गुलाम बनाना बहुत आसान है, क्योंकि यहाँ देशभक्तों का प्रतिशत बहुत कम है। राजनीतिज्ञों का हित इस बात पर ही निर्भर है कि देश टूटता चला जाये और फिर राजनीतिज्ञ ऊपर बैठ कर बातें करते रहें कि राष्ट्र की अखंडता कैसे कायम रहे? स्वार्थ-सिद्धि हेतु इस देश के छोटे-छोटे राजनीतिज्ञ हिन्दुस्तान को खंड-खंड में बाँट देंगें।
कोई भी आन्दोलन छिड़ता है तो नेता लोग विद्यार्थियों को उसमे संलग्न कर देते हैं। नेताओं में न केवल दिशा-दर्शन का अभाव है बल्कि युवा पीढ़ी को गलत दिशा में ले जाने की कोशिश हो रही है। अपनी कुर्सी बचाए रखने के लिए हमारे नेता बहुत ही खतरनाक खेल खेल रहे हैं। देश में बढ़ते एकाधिकारवादी आचरण ने सत्ता को इतना भ्रष्ट और निरंकुश कर दिया है कि उसकी चपेट में आकर सारा अवाम कराह रहा है।
स्वछंद अभिव्यक्ति के नाम पर कभी कोई फासीवादी कहा जाने लगता है, कभी राष्ट्रवाद के नाम पर हंगामा हो जाता है, तो कभी ‘भारत माता की जय’ के नाम पर। भारत में तो विचार की अभिव्यक्ति और उसके विरोध पर कभी अंकुश नहीं रहा है। यह तो भारतीय जीवन पद्धति की आत्मा है। यही तो अमृत है जो अविरल विचारों के आदान-प्रदान व शास्त्रार्थ के मंथन से प्राप्त हुआ है। अतीत काल से ही जब भी किसी सम-सामयिक विषयों पर कोई विवाद उत्पन्न होता था तब विधिवत परिषद् में विद्वान लोग समाज की सहमति से मिल कर बैठते थे और उनमें शास्त्रार्थ का सिलसिला शुरू हो जाता था। जीतता वही था जिसके तर्क में दम होता था। शास्त्रार्थ के निरन्तर मल्ल युद्ध ने ही तो भारतीय ज्ञान व विचार को शुद्धि व शक्ति प्रदान की है। इसी ने तो उसे विश्व गुरू बनाया था।
मानवीय गरिमा को सुनिश्चित करने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ज़रूरी माना गया हैं। इस तरह के अधिकार को लोकतंत्र की जीवंतता के लिए ज़रूरी माना गया है, क्योंकि लोकतंत्र में व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं का होना आवश्यक है। आज न सिर्फ भारत में, बल्कि पूरे विश्व में ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ की ढाल रखकर अप्रिय स्थितियां पैदा की जा रही हैं।
आज कल जिस तरह से नारेबाजी और पोस्टर प्रदर्शन जे. एन. यू., दिल्ली विश्वविधालय के साथ– साथ अन्य शैक्षणिक संस्थानों में किये जा रहे हैं उसे एक शर्मनाक वाकया ही कहा जाएगा क्योंकि ऐसी हरकतों से इस देश के नागरिकों की भावनाएं ही आहत नहीं होती बल्कि राष्ट्र विरोधी ताकतें भी मजबूत होती हैं और उन्हें सर उठाने का अवसर मिलता है। उसकी प्रतिक्रिया पर अलग-अलग मत-मतान्तर हो सकते हैं परन्तु जिस तरह के राष्ट्र-विरोधी नारे लगाए गए वे राष्ट्रिय अस्मिता के लिए एक चुनौती है।
शिक्षा में दोहरी क्षमता होती है, यह विद्यार्थी को गढ़ने के अलावा वर्तमान को भी गढ़ती है, मगर इसे कम ही लोग गंभीरता से लेते हैं। बुद्धि और हाथ का उपयोग सम्यक रूप से नहीं हो पा रहा है I इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज ज्ञान और कर्म के बीच मेलजोल खत्म हो गया हैI काम करने वाले के पास ज्ञान नही पहुँचता और ज्ञानी काम करना नहीं चाहता है I
हमें छात्रों की उसकी जटिल होती भूमिका को नए सिरे समझने की कोशिश करनी चाहिए। उनके साथ संवाद करना चाहिए और उनको सुनना चाहिए कि आखिर उनके मन में शिक्षा, समाज और आज के बदलाव को लेकर क्या हलचल हो रही है? अगर समाज का हिस्सा होने के नाते हम उनकी आलोचना करते हैं तो अच्छे काम के लिए तारीफ भी करनी चाहिए।
भारतीय समाज सदैव उदार, समझदार व मिलनसार रहा है। असहिष्णुता का भाव ही भारतीय मूल का नहीं है और यह विशुद्ध आयातित भावना है। लड़ाई की जड़ तो यह है कि सेक्युलर दूसरों को वह उपदेश देते हैं जिस पर वह स्वयं कभी नहीं चलते हैं। मुझे इस बात की बहुत चिंता नहीं है कि हम विरासत में कैसा भारत युवाओं को देंगें बल्कि चिंता इस बात की है, कि आखिर क्यों हम इन नकारात्मक बातों में अपनी ऊर्जा नष्ट कर रहे हैं? आखिर क्यों हम चिंतन में अक्षम और व्यर्थ बहस में सक्षम होते जा रहे हैं?
– नीरज कृष्ण