छंद-संसार
ताटंक छंद
टुकड़े टुकड़े मरते देखा, हिन्दुस्तानी माटी को।
रोज सिसकते देखा हमने, उस करगिल की घाटी को।
रोती हैं अब गंगा यमुना, रोते आज किनारे हैं।
रोते हैं सब बाग बगीचे, रोते सब गलियारे हैं।
माँ रोती है पापा रोते, रोती घर में है बेटी।
किस्मत रोती द्वार द्वार पर, हरदम अब लेटी लेटी।
रोता है हर युवा हिन्द का, रोती सलमा सीता हैं।
रोता है कुरआन आज फिर, रोती भगवद् गीता है।
रोता है अब घर का आँगन, रोती हैं अब दीवारें।
रोती हैं अब खड़ी इमारत, रोती हैं अब मीनारें।
रोता है हर चूल्हा चौका, रोती है अब तो रोटी।
रोते हैं निर्दोष जानवर, कटती जब बोटी- बोटी।
रोती है हर आँख आज तो, हर पल बेबस भाई की।
राखी भी अब रूठ रही है, होकर मौन कलाई की।
खुद भी रोते और ख़ुदा भी, साथ साथ सब रोते हैं।
कैसे-कैसे ज़ुल्म नये नित, लाचारों पे होते हैं।
रोता है हर बाप सुता का, रोती दुल्हन बेचारी।
महँदी रोती चूड़ी रोती, है ये कैसी लाचारी।
निदिया रोती सपने रोते, रोता आँचल माता का।
कैसे सब ये यहाँ हो गया, रोए लेख विधाता का।
हम भी रोएँ तुम भी रोते, सोच-सोच घबराते हैं।
क्या दुनियाँ में बने हुए अब, केवल झूठे नाते हैं।
झूठे और फ़रेबी जन का, बस सम्मान यहाँ होता।
नेक भला निस्वार्थ आदमी, चुपके-चुपके है रोता।
एक समस्या होती अपनी, बिन बोले सह लेते जी।
देश समस्याओं का घर है, क्या हम ये कह लेते जी।
जातिवाद आतंकवाद औ, वंशवाद की ये माया।
भूख गरीबी शोषण हत्या, कहीं नहीं सुख की छाया।
बस कोरी बातें करने से, नव उत्थान नहीं होगा।
रोज रोज यात्रा करने से, देश महान नहीं होगा।
यदि ऐसा ही चलता आया, सारा जहाँ यहीं होगा।
होगा सब कुछ विश्व पटल पर, हिंदुस्तान नहीं होगा।
– राकेश दीक्षित राज