उभरते-स्वर
तलाश
किसी कशमकश में हूँ
भीड़ में अकेली-सी हूँ
चारों और हैं नफरतें
प्यार को तलाशती-सी हूँ
उम्मीद है, यादें भी हैं
पूरा करे जो वो
इरादों की तलाश-सी है
सपने हजारों हैं
साहस भी है पर
एक उड़ान की तलाश-सी है
बहुत सोचता है ये मन
किन्हीं ख्यालों की बस आस-सी है
और नहीं कुछ शायद
खुद को खुद से मिलाने की एक तलाश-सी है।
******************************
जाने कहाँ गए वो दिन
जब धूप में खेला करते थे
और मिट्टी को गीला करते थे
बनते थे भांडे-बर्तन सब
और घर-घर खेला करते थे
जाने कहाँ गए वो दिन
गली-मोहल्ले शोर मचाते
दिन-दिहाड़े उँगलियों से गोलियाँ चलाते
धाएं-धाएं का शोर मचाते
चोर-पुलिस की फौज घुमाते
जाने कहाँ गए वो दिन
माँ के छुपाये डिब्बे से लड्डू चुराते
पापा की पॉकेट से अठन्नी खिसकाते
दीदी की चोटी खींच भगाते
भैया के गुस्से से बिल में छुप जाते
जाने कहाँ गए वो दिन
इशारों में दोस्तों से बतियाते
‘फिल्म लगी है’, उस तक बात पहुँचाते
माने तो हरा, वरना लाल रुमाल गिराते
और किताबें गिरने पर रिश्ते बन जाते
जाने कहाँ गए वो दिन
– ज्योति कोहली