जो दिल कहे
ढोल गंवार सूद्र पसु ‘नारी’…….सकल ‘ताड़ना’ के “अधिकारी”।
तुलसीदास जी की इस उक्ति को लेकर महिला समाज में बहुत ज्यादा रोष होता है क्योंकि पुरुष वर्ग यदा कदा इस उक्ति के माध्यम से उन्हें उलाहना देते हैं – “ढोल गवार शुद्र पशु नारी, ये सकल ताड़ना के अधिकारी”, यहाँ ताडना शब्द को लेकर समाज में बहुत ज्यादा मत-मतान्तर है। इस चौपाई में ‘ताड़ना’ एक विवादित शब्द है।
तुलसीदास कृत ‘रामचरित मानस’ के ‘सुन्दरकाण्ड’ से ली गयी हैं ये पंक्तियाँ। इस चौपाई का गलत अर्थ निकालकर इसका भरपूर दोहन हुआ है। हिंदुओं में फूट डालकर उन्हें आपस में लड़वाकर विभाजित करने के लिए इसका भरपूर इस्तेमाल होता है। इसका अर्थ यह निकाला जाता है कि तुलसीदास जी ने शूद्रों, अशिक्षित लोगो तथा स्त्रियों को प्रताड़ित करने (मारने-पीटने) की सलाह दी है। यह सरासर झूठ है।
तुलसीदास का जन्म उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में हुआ था, जो बुंदेलखंड में आता है। तुलसीदास वहीं बड़े हुए थे। तुलसीदास ने महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण से ही प्रेरित होकर रामचरित मानस की रचना की। वाल्मीकि का जन्म शूद्र परिवार में हुआ था। तुलसीदास राम भक्त थे और भगवान श्रीराम ने तो शबरी (जो कि भीलनी थी) के जूठे बेर खाये थे। इसके अलावा श्री राम का विषाद तथा केवट के साथ मिलन के जो घटनाएं है वह श्रीराम के मनुष्य मात्र से प्रेम के उदाहरण हैं। ऐसे में राम भक्त तुलसीदास जी शूद्रो से घृणा के चौपाई रचे यह कैसे संभव है?
बुन्देली भाषा में “ताड़ना” का अर्थ घूरना, टकटकी लगाकर देखना, ठीक से ध्यान रखना, निगरानी करना होता है।
बुन्देली भाषा में क्रिया शब्द (verb) के आगे “बो “लगाया जाता है, जैसे करना का “करबो” जाना का “जाबो” लाना का “लेबो” ऐसे ही हिंदी में जिसे लोग ताड़ना शब्द समझ रहे हैं, वह बुन्देली का मूल शब्द ताड़बो है। इसका अर्थ निगरानी करना, और ध्यान रखना है। जैसे – “भैया मोरी बछिया खों ताड़ें राखिओ” अर्थात मेरी गाय पर ध्यान रखना। और “इते सुनो तनक लरका बच्चन खों ठीक सें ताड़त रहियो” अर्थात यहाँ सुनो जरा लडके बच्चों का ठीक से ध्यान रखना।
रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखी गयी है। उक्त चौपाई में प्रयोग किया गया शब्द ‘ताड़ना’ संस्कृत शब्द ‘ताड़न’ से मिलती जुलती है। इसी का दुरूपयोग करके धूर्त लोगों ने ‘ताड़ना’ शब्द का अर्थ ‘प्रताड़ित करना/ पीटना’ लगा दिया और उक्त चौपाई का अर्थ निकाला- ढोल, गंवार, शूद्र और स्त्रियाँ निर्दोष होने पर भी दण्डित होने के लायक है और इस प्रकार अर्थ का अनर्थ कर डाला।
किसी ग्रंथ में लिखी हुई बात पर विचार करना हो तो पहले उस ग्रंथ का ध्यान से मनन एवं चिंतन करना चाहिए कि किस प्रसंग में यह बात कही जा रही है और कौन बोल रहा है? बिना विचार किये सीधे तुलसीदास पर कलंक लगाना कि उन्होंने नारी-जाति पर आक्षेप किया है, यह हमारी अज्ञानता है- ‘निज अग्यान राम पर धरहीं’ (मानस ७।७३।९)।
यदि पुरुष-जाति स्त्री-जाति पर आक्षेप करती है अथवा स्त्री-जाति पुरुष-जाति पर आक्षेप करती है तो वे दोनों ही गलत हैं। अपनी जाति को बढ़िया बताना और दूसरी जाति को खराब बताना मनुष्यता नहीं है। गोस्वामीजी सीताजी के चरणों की वंदना करते हैं- जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुना निधान की। ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥ (मानस, बाल० १८।७-८)|
वे स्त्री-जाति की निंदा कैसे कर सकते हैं? भला आदमी दूसरे की निंदा नहीं कर सकता, प्रत्युत अपनी निंदा कर सकता है कि भाई! हम तो ऐसे हैं! पार्वतीजी शंकरजी से कहती हैं जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥ ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥ जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन का गढउ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहूँ । अति आरति पछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि(मानस, बाल० १०८-११०)
पार्वतीजी के शब्दों में कितनी विनम्रता है। उन्होंने अपने को ऊँचा नहीं बताया है। भद्र आदमी कभी अपने को ऊँचा और दुसरे को नीचा नहीं बतायेगा। व्यक्तियों में सभी तरह के व्यक्ति होते हैं। स्त्रियों में सीताजी भी हैं, शूर्पणखा भी है। पुरुषों में श्रीरामजी भी हैं, रावण भी है। ग्रंथों में सब तरह की बातें आती हैं, पर वे शिक्षा के लिये आती हैं, आक्षेप के लिये नहीं। उनकी शिक्षा है-‘रामादिव वर्तितव्यंन तु रावणादिवत्’ अर्थात् बर्ताव करना हो तो श्रीराम आदि की तरह करना चाहिये, रावण आदि की तरह नहीं।।
श्रीरामचरितमानस के सुंदरकांड में आता है-सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे। गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥। तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥ प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥ प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही । मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही॥ ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥। (५९।१-६)-
यह बात “समुद्र” कह रहा है। समुद्र मनुष्य रूप से भगवान राम के सामने आता है और क्षमा माँगता है। वह कहता है कि ‘नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी-ये पाँचों ही जड़ हैं। जल होने से मैं भी जड़ स्वभाव वाला हूँ। सृष्टि के लिये आपने ही इन पाँचों को उत्पन्न किया है। जिसके लिये जैसे आज्ञा दी गयी है, वह उसी के अनुसार अपनी मर्यादा में रहने से सुख पाता है। प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी। परंतु मर्यादा भी आपकी ही बनायी हुई है। ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और नारी-ये सब ताड़ना अर्थात् शिक्षा के अधिकारी हैं।’
समुद्र कहता है-‘मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही अर्थात् जिस मर्यादा में हम रहते हैं, वह आपकी ही बनाई हुई है: अतः इसमें हमारा दोष कहाँ हुआ? दोष तो आपका ही हुआ! फिर कहा कि ‘ढोल गंवार सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।’
अब ‘ताडना’ शब्द पर विचार करना है कि इसका क्या अर्थ है? समुद्र ने जो कहा कि ‘प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही’ अर्थात् प्रभु ने अच्छा किया कि मुझे शिक्षा दी, तो इस प्रसंग से पता चलता है कि ‘ताडना’ नाम शिक्षा का है। चाणक्य नीति में आया है- लालयेत् पञ्च वर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत्। प्राप्ते तु षोडशे वर्षे पुत्रे मित्रवदाचरेत्।।- यदि बालक को पाँचवें वर्ष से मारने लगें तो वह बेचारा दस वर्ष पूरे होने से पहले ही मर जाएगा। अतः ‘ताड़ना शब्द का अर्थ मारना नहीं, प्रत्युत शिक्षा देना है।
इसमें एक मार्मिक बात है कि ढोल, गंवार, शुद्र, पशु और नारी–ये सब शिक्षा अधिकारी हैं; अतः यदि इन्हें ठीक शिक्षा नहीं मिलती तो दोष इनका नहीं होता, प्रत्युत शिक्षा देने वाले का होता है। ढोल ठीक तरह से नहीं बोल रहा है तो ढोल का दोष नहीं है, बजाने वाले का दोष है। गंवार(मुर्ख) ठीक नहीं है तो वह जिसके पास रहा है, उस शिक्षक का दोष है। शूद्र ठीक नहीं है तो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों का दोष है। पशु ठीक नहीं है तो उसे शिक्षा देने वाले का दोष है। बैल, घोड़ा, ऊँट आदि को शिक्षित करते हुए उनमें कोई दोष आ जाए, खराबी आ जाए तो वह उम्र भर ठीक नहीं होता। रामायण के पूरे युद्ध में ही प्रभु श्रीराम ने पशुओं (वानरों, रीछ, जटायु जैसे पक्षियों) की सहायता ली हैं ऐसे में पशुओ को प्रताड़ित करने की बात तुलसीदास कैसे कर सकते हैं? ऐसे ही स्त्री ठीक नहीं है तो उसके माता-पिता का, पति का दोष है। तात्पर्य यह है कि ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
अधिकारी को शिक्षा न मिले तो शिक्षा देने वाले का दोष है। प्रायः हम लोग सुनते और बोलते हुए देखते हैं जब कोई लड़की विवाह होने पर ससुराल में आती है और उसे ठीक तरह से काम करना नहीं आता तो कहते हैं कि इसे माँ ने सिखाया नहीं है। काम तो लड़की नहीं करती, पर बदनामी होती है माँ की! अतः दोष माँ का हुआ, लड़की का क्या दोष है? अतः ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं। अब इन्हें शिक्षा न मिले तो इनका दोष कैसे हुआ? परंतु इस बात को ज्ञानी लोग कहते हैं कि इस चौपाई में नारी जाति की निंदा की गयी है; अत: इसमें से ‘नारी’ शब्द को हटा दो और लिखे दो-ढोल गंवार सूद्र पसु चारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥’ बुद्धि तो खुद में नहीं है, दोष दूसरे पर धरते हैं!
यदि ‘नारी’ की जगह ‘चारी’ शब्द ले लें तो फिर ‘सकल’ शब्द गलत हो जायगा। जो बात हमारे मन के अनुकूल न हो, उसे पुस्तक में बदल दी, उसे काटकर दूसरी बात लिख दो-यह बहुत अपराध की बात है। यह तुलसीदास की वाणी की हत्या करना है। बारीकी से देखा जाए तो वाणी की हत्या मनुष्य की हत्या से भी अधिक बड़ा पाप है। जो बात समझ में न आये, उसे गलत बताना अपरिपक्व बुद्धि का धोत्तक है। बात पसंद न आये तो पुस्तक को बदल दो, गुरु पसंद न आये तो गुरु को बदल दो– यदि ऐसी बात रहेगी तो फिर आप शिक्षा किससे लेंगे, समझदार कैसे बनेंगे? आपको तो उनके अनुकूल बनना है, न कि उन्हें बदलना है। आजकल का जमाना बहुत विचित्र है। जो बात अपनी समझ में न आये, जो बात आपके अनुकूल न लगे उसे गलत कह देंगे।
‘ताड़ना’ शब्द का अर्थ है-शिक्षा। समुद्र ने कहा है-‘प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही’ यह नहीं कहा है कि ‘मोहि ताड़ना दीन्ही।’ ‘ताड़ना’ का अर्थ ‘मारना’ कैसे होगा? जो प्रसंग चल रहा है, उसके अनुसार ही अर्थ न होगा। बात शिक्षा की है, मारने की है ही नहीं। ढोल, गंवार आदि खराब हैं तो उनके शिक्षक का दोष है, उनका खुद का दोष नहीं है। उनमें कोई दोष आये तो वह उनका नहीं है, शिक्षकों का है। बात तो यह है, पर दोष देते हैं कि तुलसीदास ने नारी-जाति की निंदा कर दी। समुद्र नम्रतापूर्वक कहता है कि आपने अच्छा किया कि मुझे शिक्षा दे दी, हम तो शिक्षा के अधिकारी हैं। ठीक तरह से शिक्षा देने को ही ‘ताड़ना’ कहते हैं। इसलिये कहा है- लालनाद् बहवो दोषास्ताडनाद् बहवो गुणाः।। तस्मात् पुत्रं च शिष्यं च ताडयेत् न तु लालयेत्॥
हमें यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि ‘अधिकारी’ शब्द का प्रयोग किसी अच्छी एवं सकारात्मक बात के लिए ही किया जाता है जबकि सजा के सन्दर्भ में अधिकारी शब्द का प्रयोग गलत है क्योंकि सजा पाने की नहीं, देने की बात होती है। इसलिए उपर्यक्त चौपाई में अधिकारी शब्द का प्रयोग किसी अच्छी चीज़ को पाने के लिए ही हुआ है। चौपाई में ढोल, गँवार, शूद्र, पशु तथा नारी ये पाँचों “सकल ताड़ना” के अधिकारी हैं शब्द सकल का अर्थ है ‘सम्पूर्ण’। ताड़ना शब्द का अर्थ वैसे ‘पिटाई’ से लिया जाता है परन्तु एक अर्थ और है ‘परखना’ या “भाँपना” — ‘वह उसकी नीयत को ताड़ गया’ अर्थात वह समझ गया कि उसकी नीयत में खोट थी। चूँकि चौपाई में मामला भगवान राम से जुड़ा है इसलिए आध्यात्मिक सन्दर्भ में ताड़ना का अर्थ देखने- परखने या भाँपने से ही है न कि पिटाई या दुत्कारने से।
तुलसीदास जी ने तो यहाँ तक लिखा है कि ‘एक नारिब्रतरत सब झारी।/ ते मन बच क्रम पतिहितकारी’- अर्थात पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। साथ ही सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण; उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण और यहाँ तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा (जो असुर कुल की थी) का चित्रण भी सकारात्मक ही है। सिर्फ इतना ही नहीं सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना। कैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं जब, उन्हे अपनी ग़लती का पश्चाताप होता है। ऐसे में तुलसीदास जी के शब्द ‘ताड़ना’ का अर्थ स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है…… यह विश्वास करने योग्य नही कदाचित नहीं है।
अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
– नीरज कृष्ण