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डॉ. जी. एम. ओझा, एक गुजराती भाषी ने शब्द दिया था- ‘पर्यावरण’
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विश्व चेतना जागृत हुई कि जिस महान ग्रह पृथ्वी पर मनुष्य रहकर पर्यावरण का उपयोग कर रहा है वही समूचा भूमंडल व उसका वातावरण उसके कार्यकलापों से प्रदूषित होते जा रहे हैं। रूसी वैज्ञानिक वी. आई. वर्नवदस्की केअनुसार पृथ्वी के जीवमंडल यानि की भूमि के चारों तरफ़ के तीस किलो मीटर के वायुमण्डल के घेरे से लेकर भूगर्भ तक जहाँ जीवन प्राकृतिक रूप में स्पंदित होता है, जीवमंडल कहलाता है। इसके बीच में बिखरा हुआ है मनुष्य और पेड़ पौधों की जातियाँ, उपजातियाँ, कीट, जानवर, ठाठें मारता समुद्र, नदियाँ, पहाड़, खनिज आदि। इसके संरक्षण की ज़िम्मेदारी मनुष्य पर है यही बात याद दिलाने व याद रखने के लिए यू एन ओ ने २१ सितम्बर को `जीवमंडल दिवस`घोषित किया क्योंकि इस दिन दिन और रात का समय बिलकुल एक होता है यानि कि आधा दिन और आधी रात। ये हमें याद दिलाता है कि पृथ्वी हमें जीवन दे रही है तो उसके संरक्षण की हमारी भी ज़िम्मेदारी भी उतनी ही है। इस दिन पर वड़ोदरा के अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार यूनेप ५०० के विजेता स्वर्गीय डॉ. जी.एम.ओझा को याद करना भी ज़रूरी है जो वड़ोदरा के एम. एस.यूनिवर्सिटी के वनस्पति विभाग में रीडर रहे थे। जिन्होंने भारत में प्रथम बार सन १९७५ में पर्यावरण संरक्षण के लिए संस्था स्थापित की थी `इनसोना `[इंटरनेशनल सोसायटी ऑफ़ नेचुरलिस्ट] .उनके द्वारा सम्पादित पत्रिका `एनवायरमेंट अवेयरनेस` पर्यावरण संरक्षण के लिए एशिया की प्रथम पत्रिका थी जिसमें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त वैज्ञानिक लोगों में इसके प्रति चेतना जगा रहे थे।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात ये है कि एक गुजराती डॉ जी. एम.ओझा के सुझाव पर इंदिरा गांधी जी ने `पर्यावरण कार्यालय`आरम्भ किया जो कालांतर में पर्यावरण मंत्रालय में तब्दील किया गया। इंदिरा जी ने व अन्य लोगों ने उनसे कहा भी कि `एन्वायरमेंट `शब्द के लिए `पर्यावरण `शब्द ठीक नहीं है क्योंकि आम जन की जुबान पर ये चढ़ेगा नहीं लेकिन ओझा जी का हठ था कि ये उपयुक्त है।
वे शहर की अन्य एनजीओज़ जैसे, अखिल महिला हिन्द परिषद व रेलवे महिला समिति,ओ एन जी सी महिला समिति आदि के साथ कार्यक्रम आयोजित करके वड़ोदरा की आम जनता व बच्चों को समझाते रहे कि पर्यावरण पेड़ पौधों का ही नाम नहीं है। इसके अंतर्गत और भी बहुत कुछ आता है। अस्मिता, महिला बहुभाषी साहित्यिक मंच, वड़ोदरा के साथ उन्होंने कुछ कार्यक्रम किये थे जिसमें एक था `पर्यावरण कविता प्रतियोगिता’। उन्होंने एक बार बताया था, “आम जनता को कुछ समझाओ तो समझती नहीं है इसलिए हमारे ऋषि मुनियों ने अक्ल से काम लेकर पर्यावरण सरंक्षण के लिए भ्रम फैलाये कि पेड़ों में भगवान का वास होता है इसलिए वे पूजनीय हैं।” इनसोना का प्रतीक चिह्न भी बहुत बड़ा सन्देश देता है कि जल, वायु व पृथ्वी के सरंक्षण का उत्तरदायित्व मनुष्य पर ही है।
किसी भी राजनीति या जोड़ तोड़ से दूर वे आजीवन सन २००६ तक पर्यावरण सरंक्षण के लिए पूर्ण समर्पण से आम जनता को जागरूक बनाने के लिए काम करते रहे क्योंकि हर कदम पर उनकी पत्नी प्रेमलता ओझा साथ थीं व पत्रिका की मेनेजिंग एडिटर थीं। दुःख होता है जब अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पुरस्कार पाने वाला भारतीय वैज्ञानिक बिना पद्मश्री दुनिया से कूच कर जाता है।
– नीलम कुलश्रेष्ठ