ज़रा सोचिए
डॉ. अनिकेत
– प्रगति गुप्ता
शुगर प्रॉब्लम होने की वज़ह से डॉ. अनिकेत का हमारी क्लिनिक में जाँच करवाने के लिए हफ्ते में एक या दो बार आना लगभग तय ही था। उनकी उम्र यही कोई सत्तर वर्ष के आसपास की होगी। जब भी क्लीनिक की सीढ़ियाँ चढ़ते मुस्कुराहट उनके मुख पर हमेशा खिली रहती। शुगर लेवल के बढ़ने या घटने से उनकी मुस्कुराहट पर कभी कुछ अंतर पड़ा हो, मैंने कभी महसूस नहीं किया। डॉ. अनिकेत इतने ज़िंदादिल इंसान थे कि क्लीनिक में हर एक को सोचने पर मज़बूर कर देते कि कैसी भी परिस्थिति हो, हर परिस्थिति में मुस्कुराया भी जा सकता है। जब भी आते अपना कोई न कोई अनुभव स्टाफ से शेयर करते, मेरे भी कान वही पहुँच जाते क्योंकि उनकी कोई भी बात अर्थहीन नहीं होती थी। एक लम्बे समय से लगातार टेस्ट करवाने आने की वजह से स्टाफ का हर व्यक्ति उनको पहचानता था और उनका आदर करता था। आज सवेरे जब मैं क्लीनिक पहुँची तो डॉ. अनिकेत भी लगभग मेरे साथ-साथ ही पहुँचे।
“अंकल कैसे है आप? आपकी ब्लड शुगर बराबर चल रही है! वैसे आपका कंसलटेंट डॉक्टर कौन है? सब ठीक तो चल रहा है ना?” मैंने डॉ. अनिकेत से पूछा।
“कितने प्रश्न पूछती हो डॉ. विभा तुम? एक के बाद एक लगातार पूछना शुरू करती हो तो रुकती ही नही हो। मरीज़ों की कॉन्सिललिंग करती हो न तभी एक बार बोलना शुरू हुई नहीं कि रुकने का नाम ही नहीं लेती हो। अगर तुम मेडिसिन की डॉक्टर होती तो मेरा ‘परामर्श डॉक्टर’ का काम भी तुम्हारे क्लिनिक पर ही हो जाता बेटा।
“जानती हो, घर के बिल्कुल नज़दीक होने से तुम्हारे यहाँ दो बार हफ्ते में शुगर लेवल टेस्ट करवाने आने के पीछे मेरे दो मक़सद पूरे होते हैं। एक तो घर से निकलने पर मेरा मन थोड़ा बदल जाता है हालांकि यह टेस्ट मैं घर पर भी कर सकता था। दूसरा तुम्हारे क्लीनिक में मुझे बहुत अपनापन नज़र आता है।तुमको देखकर मुझे अपने बच्चों की कमी महसूस नहीं होती बल्कि राहत महसूस होती है।” डॉ. अनिकेत ने कहा।
“अंकल आप चलिए न मेरे चेम्बर में, अभी तो मेरा भी कोई मरीज़ नहीं, बहुत दिनों से आपको आता-जाता देखती रही हूँ तो मेरे भी मन में आपके प्रति बहुत सारे प्रश्न पैदा होते रहे हैं। यहाँ आए हुए मरीज़ों के प्रति और मेरे स्टाफ के प्रति, जब भी आपके व्यवहार को देखती हूँ तो अक़्सर ही आपसे बहुत कुछ जानने का मन होता है। सोचती थी किसी रोज आपको वक्त हुआ और मेरे भी मरीज़ न हुए तो ज़रूर आपसे आपके बारे में पूछूंगी।” आज मेरा डॉ. अनिकेत से इस तरह अधिकार भरा आग्रह करना उनकी आँखों में नमी बनकर बिखर गया और उनकी आँखों में तैरती नमी मेरी आँखों से छिपी नहीं रही। उनके इस भावुक स्वरूप को देख मैं भी उनके हाँ और ना का इंतज़ार करने लगी।
थोड़ी ही देर में उन्होंने अपने आप को संयत कर मुस्कुराते हुए कहा, “चलो आज तुम्हारे साथ बैठते हैं बेटा। सबसे पहले तुम यह बताओ, तुम्हारे पति क्या करते है? कितने बच्चे हैं तुम्हारे और घर में कौन-कौन है? पहले मैं भी तो जान लूँ जिस बच्ची की क्लीनिक में मैं बराबर आता रहता हूँ, उसके परिवार में सब कुशल मंगल है।” डॉ. अनिकेत ने मेरे चैम्बर की कुर्सी पर आकर बैठते ही मुझसे पूछा।
“अंकल मेरे पति का नाम डॉ. अखिल है। वे कार्डियोलोजिस्ट हैं और यहाँ गवर्नमेंट हॉस्पिटल में कार्यरत हैं। वो भी यहाँ आते रहते हैं अगर उनका यहाँ कोई मरीज़ होता है। हमारे एक बेटा और बेटी है, जो कि अभी दसवीं व बारहवीं बोर्ड की परीक्षा की तैयारी में लगे हैं। घर में पापा हैं जो रिटायर्ड प्रोफेसर हैं और मम्मी का गत वर्ष ही देहांत हुआ है।
“मेरे पीहर में भी पापा प्रोफेसर पद से ही रिटायर हुए, माँ का देहांत हुए तीन साल हो चुके हैं और बड़े भाई के पापा के साथ रहने से सब बहुत अच्छे से चल रहा है।” जब मैं संक्षिप्त में डॉ. अनिकेत को जब अपना परिचय दे रही थी, तब उनके चेहरे की मुस्कुराहट बहुत कुछ बोल रही थी।
“जानती हो डॉ. विभा, तुम्हारी क्लिनिक पर मेरा आना बहुत स्वाभाविक ही था क्योंकि ईश्वर निमित्त सब वैसा ही आसपास जुटता है, जैसा कि तय है इस बात को मैं मानता हूँ। ईश्वर कुछ लोगों को हमारे आसपास इसलिए इकठ्ठा करता है क्योंकि वो हमारे सुख-दुःख में साझी भूमिकाएँ निभाने के लिए ही निमित होते हैं, बस। हम सभी को कुछ ऐसे लोगों को उपस्थिति को महसूस कर अपनी ज़िंदगी में शामिल कर लेना चाहिए। तभी ईश्वर की मंशा भी पूर्ण होती है।तुम्हारा मरीज़ों के साथ और मेरे साथ सहृदयता और अपनापन मुझे हमेशा यहाँ खींच लाता है जबकि तुम भी जानती हो मैं यह ब्लड शुगर अपने घर पर भी टेस्ट कर सकता था।
“विभा बेटा! तुम्हारे व्यक्तित्व में जब अपने बच्चों को महसूस करता हूँ तो बहुत ख़ुश होकर लौटता हूँ घर और कुछ दिन मेरे बहुत अच्छे से निकल जाते हैं।बस बीच-बीच में जब बच्चों की हुड़क, उनकी याद दिलाती है तब उसी को महसूस करने मैं तुम्हारे क्लीनिक में चला आता हूँ बेटा।” यह सबकुछ बोलते-बोलते जब डॉ. अनिकेत की आवाज़ फिर से बोझिल होने लगी तो तुरंत ही उन्होंने अपनी बात को बदलते हुए मुझसे पूछा, “बहुत भाषण जैसी बातें तो नहीं लग रही तुमको मेरी।” ऐसा मुझसे पूछकर डॉ. अनिकेत अब चुप होकर किसी सोच में डूब गये थे। डॉ. अनिकेत शायद किसी के भी आगे अपने दुखड़े रखकर अपने लिए संवेदनाएँ इक्कठी करना अच्छा नहीं समझते थे।
“नहीं अंकल, ऐसा कुछ भी नही है। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है क्योंकि आपकी बातें मुझे बहुत कुछ सीखने को प्रेरित करती हैं। मैं अक्सर ही आपको जिस सद्भावना के साथ सभी से मिलते-जुलते देखती थी, उसने मुझे हमेशा ही आपके प्रति पितातुल्य भावों को ही जगाया है।” मैंने बातचीत को बढ़ाते हुए कहा।
अपने स्टाफ को इस बीच उनके लिए चाय लाने का बोलकर मैंने अपनी बात जारी रखी क्योंकि आज मैं उनके बारे में जानने के लिए उत्सुक थी। उनका क्लीनिक में हमेशा ही अकेले एक सेवक के साथ आना उनके बारे में बहुत कुछ तो महसूस करा गया था मुझे, पर अब मुझे उनसे ही सुनना था। जाने क्यों मुझे वो बहुत ही ज़मीन से जुड़े हुए इंसान लगते थे। अपनी हर बात को धीरे से कहना और किसी भी बात का बहुत दिल से उत्तर देना उनकी आदतों में शुमार था।एक बार उनकी ही बातों से पता चला कि वह प्रोफेसर थे। जाने कितने ही बच्चों को पढ़ा चुके थे वो। शायद यही वज़ह थी कि हर बात को बहुत नाप-तोल कर बोला करते थे और बहुत ही अर्थपूर्ण उनका वार्तालाप हुआ करता था। जब कुछ कहना चाहते और चाहकर भी नहीं कहते तो मुस्कुराकर अपनी बातों पर रोक लगा देते थे। बहुत ही अच्छे व्यक्तित्व के इंसान थे। थोड़ी देर चुप रहकर अंकल ने पुनः अपनी बात कहना शुरू किया, “बेटा! जब सब बहुत अच्छा होता है ना तो भी इंसान बहुत अकेला होता है। चालीस साल के अध्यापन में न जाने कितने बच्चों को दिल से सिखाते-सिखाते और पढ़ाते-पढ़ाते उनसे दिल से जुड़ता रहा। अब जब भी अतीत के पन्ने उलट-पलट करता हूँ तो उनकी शरारतों से जुड़ी सैकड़ो यादें मुझे आज भी तरोताज़ा कर देती है। मुझे अपने स्टूडेंट्स का प्रेम भी हमेशा याद रहेगा। पर जानती हो बेटा, जैसे-जैसे यह बच्चे अपनी-अपनी मंज़िलों पर निकले, मुझे उनकी उन्नति से जुड़ी बहुत सारी खुशियों में भी अपने लिए एक अकेलापन महसूस हुआ। वो सब अपनी-अपनी ज़िंदगी में आगे बढ़ते गये और मैं उनकी यादों में समेट खुद को बहुत खुश महसूस तो करता रहा, पर उनकी बातों उनके निश्चल स्वछंद ठहाकों की कमी, आज भी मुझे कॉलेज से जुड़े स्वप्नों में, रात-रात भर गलियारों के चक्कर लगवाती है और इससे जुड़ा अकेलापन अब रिटायर होने के बाद मुझे बहुत अखरता है।”
“सोचता हूँ आज भी कि बच्चों की मदद करूँ पर अब शरीर से जुड़ी असहायता ऐसा करने नहीं देती और इन बातों से जुड़ा अकेलापन कभी-कभी बहुत अखरता है। तुमको एक किस्सा सुनाता हूँ कॉलेज का, बेटा। मेरा एक स्टूडेंट हुआ करता था विकास। बहुत मेधावी था वो। उस समय मैं डीन फैकल्टी था। इम्तिहान की तारीख़ों को लेकर कॉलेज में माहौल गर्म था। हर रोज़ ही कुछ न कुछ फ़साद शरारती स्टूडेंट्स करते ही थे। एक रात कुछ स्टूडेंट्स ने बहुत सारे पत्थर हमारे घर पर फेंके और ख़ूब टीचर्स के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी की। जब मुझे कुछ समझ नहीं आया तो विकास को फ़ोन कर उसको मैंने सूचना दी। क़रीब रात के दो बजे होंगें पर वो जितनी जल्दी आ सकता था, घर आया और सारी रात मेरे साथ रहा ताकि किसी भी परेशानी की स्थिति में वो मेरा संबल बन सके। आज भी वो मेरे संपर्क में है, पर बहुत दूर पोस्टिंग होने की वजह से उससे मिलना बहुत संभव नही है। दरअसल बेटा, गुरु अगर स्टुडेंट की निगाहों में उच्च स्थान पर बैठा हो न तो उसको जितना आदर भाव मिलता है, उसकी तुलना नहीं की जा सकती, यही हम शिक्षकों की पूंजी भी होती है।
“एक बेटा और एक बेटी है मेरी…बहुत बढ़िया संतान। हर बार साथ चलने की ज़िद करते हैं कि अब अकेले मत रहिये, साथ चलिए उनके पास। दोनों ही बहुत संस्कारवान बच्चे हैं मेरे पर कुछ समय उनके साथ गुज़ारने के बाद लौट आता हूँ क्योंकि बहुत स्वाभिमान से जिया हूँ मैं बेटा, जाने क्यों कभी नहीं चाहता कि बुढ़ापे में ज़िद्दी होता मेरा यह मन उनको कुछ ऐसा कहलवा दे कि मैं अपनी सोच में अकेला रह जाऊं। अभी तो मन में यह विश्वास है कि बच्चे मेरी हर बात में साथ हैं, पर ख़ुद का स्वाभिमान मुझे अभी फिलहाल ये निर्णय लेने से रोकता है। जाऊँगा ज़रूर उनके पास पर कुछ साल बाद जब मैं अपने और उनके स्वाभिमान की गरिमा रख पाऊँगा। दरअसल बेटा! बच्चों का प्यार करना, ध्यान रखना मैं जाने से पहले उसी रूप में याद रखना चाहता हूँ जैसा कि आज है।
“आज मेरी पत्नी को गुज़रे हुए सात साल पूरे हुए है। बस सवेरे से उसी का ख़याल बार-बार यादों की सांकल खोलकर मन मस्तिष्क के द्वार पर बार-बार आकर खड़ा हो रहा था। हम दोनों ने एक-दूसरे के स्वाभिमान को निभाने की हमेशा ही कोशिश की। जितना सोचूं, मेरी पत्नी मेरे साथ उस जगह, आज भी खड़ी है कि उसका विकल्प न कभी था, न कभी होगा। उसका साथ मेरे लिए अनगिनत यादों की पूंजी है। एक-दूसरे के स्वाभिमान को जीते-जीते हम दिल के इतने करीब थे कि वो मेरा साथ अपने साथ, पूरी तरह जी गयी पर मुझे एकाकी कर गयी।
“यह भी सत्य ही है जीवन और मृत्यु शाश्वत है। पर उसकी यादें भी बहुत अकेला करती हैं किसी-किसी दिन बेटा। दो-तीन पुराने सेवक हैं आज मेरे पास जो कि आगे-पीछे घूमकर मेरी ज़रूरतें पूरी करते हैं। शायद यह लोग न होते तो बच्चों के पास जाने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं होता। इनके होने से मेरा कुछ अकेलापन भर जाता है। कुछ उनकी सुनता हूँ कुछ अपनी सुनाता हूँ, पर बेटा मेरा और उनका मानसिक स्तर बहुत अलग होने से समय तो कटता है पर कुछ है जो इस उम्र में पूर्णता नहीं देता।
“चौथी तुम हो बेटा, जिसके पास बिना बात के भी मिलने आ जाता हूँ। तुमको जब अपना जी-जान मरीज़ों के साथ लगाते देखता हूँ तो याद करता हूँ उन बच्चों को जिनकी उड़ानों में कहीं मैं सहभागी था और कल्पना करता हूँ कि आज वो सब भी तुम्हारी तरह ही जी-जान से कुछ कर रहे होंगे। बेटा! तुम्हारे व्यक्तिव में, मैं अपने पढ़ाये हुए बच्चों को और अपने बच्चों को देखता हूँ तभी तो कुछ नहीं कराना होता मुझे तब भी बस यहाँ आकर वो संतुष्टि पाता हूँ, जो मेरे गुज़रे समय की संतुष्टि से जुड़ी है।
“यहाँ तुमसे मुझे वो स्नेह मिलता है और मैं अपने इस बची यात्रा को गुज़ारने का हौसला भर लेता हूँ बेटा! यह स्नेह ही है जो मुझे वक़्त बे-वक्त तुम्हारे पास खींच लाता है इसलिए ढेरों आशीर्वाद मेरे तुम्हारे लिए हमेशा रहते हैं। हमेशा बहुत ख़ुश रहो तुम, यह मेरी मंगल कामना है।” यह सब बोलते-बोलते उन्होंने मेरे सिर पर जैसे ही हाथ रखा, उनकी फिर से नम हुई आँखे मुझे भी कहीं अन्दर तक हिलाकर बरस पड़ी। रक्त-सम्बन्धी न होने के बाद भी कोई मेरे इतना क़रीबी हो सकता है, जिसकी दुआओं में मेरे लिए ख़ास जगह है, मुझे बहुत द्रवित कर गया।
“चलता हूँ बेटा, फिर मिलूँगा तुमसे क्योंकि तुमसे मिलना तुमको देखना मेरे शेष जीवन की कुछ चाहतों में से एक है। यह बोलकर अंकल कब उठकर सेंटर की सीढियाँ उतर गये मुझे आभास भी नहीं हुआ और मैं बस सोचती ही रह गयी कि-
कोई व्यक्ति इतना सुलझा हुआ भी हो सकता है कि इस उम्र में सबकी प्रेरणा बन जाय। अकेला होकर भी अपने अकेलेपन को स्वयं पर हावी न होने दे और अपने लिए विकल्प सोच जीवंतता का उदाहरण बन जाए। जाने क्यों आज मेरा मन हुआ उनके चरण स्पर्श करने कर आशीर्वाद लेने का जबकि वो तो हमेशा ही मेरी खुशियों के लिए मेरे सिर पर हाथ रख आशीर्वाद देते रहे थे।
– प्रगति गुप्ता