मूल्यांकन
डाॅ. पुनीता जैन कृत हिन्दी दलित आत्मकथाएँ: एक मूल्यांकन
आत्मकथा साहित्य की ऐसी विधा है, जिसके माध्यम से हम किसी व्यक्ति के जीवन के बारे में उसी व्यक्ति के माध्यम से साक्षात्कार करते है। अपनी सुख-दुख की अनुभूतियों को लेखक तटस्थ होकर जब शब्दायित करता है, एक नवीन जगत् की सृष्टि करता है जिसमें यथार्थ के खुरदरे धरातल पर मुस्कानों और अश्रुओं का समन्वित स्वरूप साकार होता है। हिन्दी में विभिन्न विचारकों, संतों, राजनीतिज्ञों ने आत्मकथाएं लिखी हैं। बनारसीदास के ‘अर्द्धकथानक’ से यह परम्परा प्रारंभ मानी जाती है। परंतु यदि विचार करें तो हिन्दी के दलित लेखकों की आत्मकथाएं बहुत बाद में सामने आ पाई। इस क्षेत्र में मराठी भाषा के लेखकों ने अधिक जोरदार काम किया है। हिन्दी भाषा में यह परम्परा थोड़ी बाद में विकसित हो पाई है।
डाॅ. पुनीता जैन की शोधपरक कृति ‘हिन्दी दलित आत्मकथाएं: एक मूल्यांकन’ इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कृति कही जा सकती है। डाॅ. पुनीता जैन ‘दृष्टि’ और ‘अन्तर्पाठ’ नामक दो खंडों में हिन्दी भाषा में प्रकाशित महत्त्वपूर्ण आत्मकथाओं का अवलोकन-विवेचन करती है। ‘दृष्टि’ में कुल पाँच आलेख सम्मिलित हैं, जिनके अन्तर्गत दलित साहित्य के परिदृश्य की पड़ताल की गई है। लेखिका का कथन है- “अम्बेडकर के गहन प्रभाव के परिणामस्वरूप मराठी में दलित लेखन का आरंभ हुआ। इसी क्रम में सन् 1980 के पश्चात् दलित साहित्य पर हिंदी जगत् में भी हलचल हुई तथा अनेक लेखक आत्मकथा लेखन की ओर प्रवृत्त हुए।” ‘हिन्दी दलित साहित्य की पृष्ठभूमि’ नामक प्रथम आलेख में दलितों की उत्पत्ति और सामाजिक वर्ण व्यवस्था को उपनिषद् और वैदिक काल से जोड़ा गया है। वैदिक-बौद्ध- जैन धर्म के आलोक में जाति प्रथा और वर्णव्यवस्था पर प्रकाश डाला गया है। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य लेखिका ने दर्शाया है कि साहित्य में दलित चिंतन पर भी पूरा-पूरा ध्यान दिया जाता रहा है।
‘‘वर्णव्यवस्था के विरोध में चार्वाक से कबीर तक और कबीर से प्रेमचन्द तक की लम्बी परम्परा दिखाई देती है।….जातिगत उत्पीड़न के विरूद्ध आवाज कबीर, रैदास, पीपा, मीरा से लेकर रामास्वामी नायकर, ज्योतिबा फुले, साहू जी महाराज से होती हुई अम्बेडकर के विचार-दर्शन में आकार ले सकी।’’
‘हिन्दी दलित आत्मकथन का परिदृश्य’ आलेख में हिंदी साहित्य में दलित आत्मकथाओं के प्रादुर्भाव, प्रसारण और प्रभाव की चर्चा है। ‘‘हिन्दी दलित साहित्य की शुरूआत हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ से मानी जाती है, जो सितम्बर 1914 की ‘सरस्वती’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।” सन् 1927 में प्रकाशित चाँद पत्रिका के ‘अछूत अंक’ की विवेचना यहाँ महत्त्वपूर्ण है। डाॅ. जैन ने यहाँ दलित आत्मकथाओं की एक विस्तृत सूची दी है। लेखिका निष्कर्ष रूप में लिखती हैं- “जिस सांस्कृतिक विरासत में भेदभावपूर्ण नीतियाँ दर्शित है, उसी में मानवमात्र के उदात्त स्वरूप का भी चरम उत्कर्ष अंकित है। वह मानव मूल्य किसी विशेष जाति, वर्ण या वर्ग का नहीं, सबका है और इसलिए ग्राहय है।”
‘‘साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र, साहित्य में अनुभूति, स्मृति, कल्पना आदि द्वारा आनन्द को उत्पन्न करने वाले गुणों का अध्ययन करता है।’’ उल्लेखनीय है कि दलित साहित्य प्रतिरोध और मुक्ति-चेतना की बात करता है। यहाँ सौदर्यशास्त्रीय भाव-भंगिमायें न तो आवश्यक हैं और न ही महत्त्वपूर्ण। डाॅ. पुनीता जैन इस जटिल विषय को हिन्दी दलित आत्मकथाओं के परिप्रेक्ष्य में देखती हैं। लेखिका का कथन महत्त्वपूर्ण है- “वस्तुत दलित लेखक ‘रस’, ‘आनन्द’ और ‘सौन्दर्य’ आदि कलावादी मूल्यों की अपेक्षा स्वतंत्रता और समानता को अधिक महत्त्वपूर्ण मानता है। अन्याय, पीड़ा, अवज्ञा और विषमता की बेबाक अभिव्यक्ति को दलित लेखन का नैसर्गिक कला मूल्य माना गया है।” लेखिका ने दलितों के समक्ष स्वतंत्रता, समता, न्याय, प्रेम जैसे सामाजिक मूल्य महत्त्वपूर्ण माने हैं। शरद कुमार लिम्बाले की विचारधारा को लेखिका उद्धृत करती हैं- “समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व इन तीनों जीवन मूल्यों को दलित साहित्य के सौन्दर्य तत्व मान सकते हैं। दलित साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र- कलाकारों की सामाजिक प्रतिबद्धता, कलाकृति में जीवन मूल्य, पाठकों के मन में जाग्रत होने वाली समता, स्वतंत्रता, न्याय और भ्रातृत्व की चेतना जैसे मूल तत्वों पर टिका रहने वाला है।” प्रस्तुत आलेख दलित साहित्य की सौन्दर्यशास्त्रीय रूपरेखाओं पर अच्छा प्रकाश डालता है। ‘दलित आत्मकथाओं और उसका समाज वैज्ञानिक पक्ष’ आलेख में डाॅ. जैन दलित आत्मकथाओं का सामाजिक परिप्रेक्ष्य निर्धारित करती हैं। लेखिका का कथन महत्त्वपूर्ण है- “वस्तुतः दलित लेखन में कला, शिल्प और सौन्दर्यशास्त्र से ज्यादा महत्त्व एक दलित की सामाजिक अवस्थिति, सांस्कृतिक अस्मिता और उसके आर्थिक अधिकारों का है। “दलित आत्मकथा लेखन में स्त्री लेखिकाओं का भी अच्छा योगदान रहा है। अनेक दलित आत्मकथाएं स्त्री-विमर्श के रूप में भी हमारे समक्ष आती है। शोषण, अपमान, उत्पीड़न की त्रासदियों को दलित आत्मकथा लेखकों और लेखिकाओं दोनों ने ही मार्मिक शाब्दिक अभिव्यक्ति दी है। डाॅ. पुनीता जैन विभिन्न दलित आत्मकथाओं में नारी जीवन की उपस्थिति को रेखांकित करती हैं। दलित साहित्य लेखन में भी लैंगिक असमानतायें सामने आती हैं। उपरोक्त ‘दृष्टि’ खण्ड के सभी पाँच आलेख हिन्दी दलित आत्मकथाओं पर अलग-अलग दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करते हैं। दलित साहित्य पर सौन्दर्य मूल्य तथा समाज वैज्ञानिकी जैसी कसौटियों पर आलेख कम ही लिखे गये हैं। ऐसे में डाॅ. पुनीता जैन का यह विवेचन महत्त्वपूर्ण बन पड़ा है।
कृति का द्वितीय भाग ‘अन्तर्पाठ’ है, जिसमें विभिन्न लेखकों की लगभग इक्कीस हिन्दी दलित आत्मकथाओं का शोधपरक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। ‘दृष्टि’ जहाँ सैद्धांतिकी को सामने लाती है, ‘अन्तर्पाठ’ मुख्यतः इन आत्मकथाओं को व्यावहारिक स्तर पर कसने का एक सफल प्रयास है। लेखिका का कथन है- ‘‘सन् 1995 में प्रकाशित ‘अपने-अपने पिजरें’ से लेकर सन् 2017 में आयी ‘अपनी जमीं अपना आसमां’ तक इन प्रस्तुतियों द्वारा हिन्दी दलित लेखन के विकास, चिन्तन यात्रा को समझना इस पुस्तक का अभीष्ट है।” ‘मैं भंगी हूँ’ (भगवानदास), ‘अपने-अपने पिंजरे’ (मोहनदास नैमिशराय), ‘जूठन- दो भाग’ (ओमप्रकाश वाल्मीकि), ‘मेरा सफ़र मेरी मंजिल’ (डी.आर. जाटव), ‘घुटन’ (रमाशंकर आर्य) ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ (ष्यौराजसिंह बेचैन), ‘मुर्दहिया’- ‘मणिकर्णिका’ (तुलसीराम), ‘शिकंजे का दर्द’ (सुशीला टाकभौरे) जैसी दलित आत्मकथाओं पर चिंतनपरक समीक्षात्मक आलेखों का प्रस्तुतीकरण, इन आत्मकथाओं को जानने- समझने का और इनमें अन्तर्निहित सामाजिक चित्रण को सामने लाने का एक स्तुत्य प्रयास कहा जायेगा। अनेक स्थानों पर लेखिका ने विभिन्न आत्मकथा लेखकों के कृतित्व की तुलनात्मक समीक्षा भी प्रस्तुत की है। इससे इन आत्मकथाओं को व्यापक दृष्टिकोण का आधार प्राप्त हुआ है। एक तुलनात्मक कथन दृष्टव्य है- “ओमप्रकाश वाल्मीकि, श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ या डाॅ. तुलसीराम के आत्मकथन स्पष्ट करते हैं कि सर्वाधिक विपरीत परिस्थितियों ने इन सभी को गढ़ा है। उन स्थितियों को सम्मुख लाने में वाल्मीकि में आक्रोश भरा विद्रोही स्वर, श्यौराज सिंह में मर्माहत विकलता तथा डाॅ. तुलसीराम में विकसित निर्लिप्त संतुलित उदात्त दृष्टि वास्तव में हिंदी दलित आत्मकथा के विकास को भी प्रदर्शित करती है। इस क्रम में दलित लेखन ने भी स्वयं को गढ़ा है।’’
विभिन्न दलित आत्मकथाओं पर अपने विचारों की प्रस्तुति के समय लेखिका ने बनी-बनाई समीक्षा पद्धति को नहीं पकड़े रखा है। प्रत्येक आत्मकथा कृति की पड़ताल लेखिका ने सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक परिवेश के संदर्भ में की है, जिससे हमें दलित साहित्य की परिवेशगत परिस्थितियाँ और जातिवादी जंतर-मंतर के अनदेखे-अनजाने अवरोध आसानी से दिखाई दे जाते हैं। डाॅ. पुनीता जैन ने इन आत्मकथाओं की भाषा-शैली, शब्द-प्रयोग, वाक्य विन्यास, व्याकरणिक संरचना के साथ-साथ गद्यशिल्प का भी विवेचन किया है। ‘मुर्दहिया का देशज शब्द-संसार’ आलेख में डाॅ. तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ के बारे में डाॅ. जैन लिखती हैं- ‘मुर्दहिया’ की भाषा ने इस सघन संवेदना को सशक्त रूप से वहन किया है। प्रभावी, सशक्त भाषा और लोक शब्दों के द्वारा ही लोकजीवन की समग्र अभिव्यक्ति यहाँ हुई है। जातिगत भेदभाव की सघन अनुभूति पूरी संवेदनशीलता के साथ ‘मुर्दहिया’ की भाषा में निहित है।”
निष्कर्षतः डाॅ. पुनीता जैन की कृति ‘हिंदी दलित आत्मकथाएँ: एक मूल्यांकन’ इस विषय पर एक महत्त्वपूर्ण आलोचना कर्म है। अपनी भाषा-शैली, विचार सघनता और संवेगात्मक प्रत्यक्षीकरण में कृति उपयोगी है। डाॅ. जैन ने दलितों की पीड़ा का आत्मसाक्षात्कार किया है और उन्हें कृति रूप में शब्दायित किया है।
समीक्ष्य पुस्तक- हिन्दी दलित आत्मकथाएँ: एक मूल्यांकन
लेखिका- डाॅ. पुनीता जैन
प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य- रू. 300/-
पृष्ठ- 352
– डाॅ. नितिन सेठी