आलेख
डाॅ. चंद्रसिंह तोमर ‘मयंक के काव्य में चित्रित हिंदी का राजभाषा रूप: पवनेश ठकुराठी ‘पवन’
डाॅ. चंद्रसिंह तोमर ‘मयंक’ उत्तराखंड के देहरादून जिले से संबद्ध साहित्यकार हैं। डाॅ. ‘मयंक’ ने कविता, कहानी, उपन्यास और निबंध विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है। उनके दो कविता संग्रह ‘अनोखे रंग धरणी के संग’ (1999 ई.) और ‘विविध रंग कविता के संग’ (2011 ई.) प्रकाशित हो चुके हैं।
डाॅ. चंद्रसिंह तोमर मूल रूप से राष्ट्रवादी साहित्यकार हैं, यही कारण है कि इनकी कविताओं में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल रूप से मुखरित हुई है। सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन का यथार्थ प्रस्तुत करने के साथ-साथ डाॅ. मयंक ने अपने काव्य में स्वदेश प्रेम, पर्यावरण, राष्ट्रभाषा चेतना और मानवीय मूल्यों की अभिव्यक्ति की है। डाॅ. मयंक की ‘अनोखे रंग धरणी के संग’ संग्रह की ‘राजभाषा का प्रणय’ और ‘विविध रंग कविता के संग’ संग्रह की ‘जन-जन की भाषा हिंदी’, ‘हिंदी दीप जलाओ’, ‘राष्ट्रभाषा की महक’, ‘हिंदी समर्पण गीत’ और ‘हिंदी हमारी माता है’ नामक कविताओं में हिंदी के विविध रूपों का चित्रण हुआ है। उनके काव्य में चित्रित हिंदी के विविध रूपों का वर्णन इस प्रकार है-
राजभाषा का शाब्दिक अर्थ है- राजकाज की भाषा अर्थात शासन कार्यों में प्रयोग की जाने वाली भाषा राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (अ) में हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया है। डाॅ. मयंक ने अपने ‘अनोखे रंग धरणी के संग’ काव्य संग्रह की राजभाषा का प्रणय (आठवां खण्ड) शीर्षक की कविता में राजभाषा के रूप में हिंदी की आजादी से लेकर अब तक की स्थिति का यथार्थ चित्रण किया है। आजादी के पांच दशक गंवा देने के बाद भी राजनेताओं की राजभाषा के प्रति उदासीनता का चित्रण वे निम्न शब्दों में करते हैं-
परतंत्रता से मुक्त हुए,
पांच दशक गंवा दिये।
किंतु राजभाषा की दिशा में,
हम स्वयं को भूल गए।
वे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू की बातों को याद करते हुए कहते हैं-
आजाद हो, नेहरू ने कहा,
देवनागरी में हिंदी का प्रचार करो।
राजभाषा हिंदी में,
कार्य सभी पूर्ण करो।
नेहरू के उपर्युक्त कथन की क्या गत हुई, इसका चित्रण वे निम्न प्रकार करते हैं-
नेहरू अध्यक्षता की जो नीति,
नेहरू के शब्दों में आवरण हो गई।
पुरातन निर्देशों की फाइल,
भाषा के नाम से विलिन हो गई।
सरकारी कामकाजों में विदेशी भाषा के बढ़ते प्रचलन व हिंदी की दुर्दशा से वे बड़े चितिंत दिखाई देते हैं-
भारत कार्यालयों का वातावरण,
विदेशी भाषा में प्रचलित है।
नाम-मात्र के वो चन्देक कार्य,
हाथी दाँत का ढोंग है।
गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों की हिंदी के प्रति उदासीनता से भी वे खिन्न दिखाई देते हैं और उन क्षेत्रों में हिंदी के अप्रचलन के दो कारण गिनाते हैं-
क्या हिंदी भाषीय क्षेत्र ही,
राजभाषा का भण्डार है।
शेष व अन्य निघंटु क्षेत्र,
क्यों निगोडे़ अवनति मार्ग पर हैं।।
इसके मूलत! हैं दो कारण,
या उन्हें राजभाषा से प्रीत नहीं।
दोयम, हिंदी भाषा के अभाव में,
उपहास उड़ा, कोई डर नहीं।
डाॅ. मयंक राजभाषा की उन्नति के लिए सामाजिक जागरूकता पर बल देते हैं-
नेत्र बिन्दु जिनके वहीं खुले,
उन्हें शीघ्र सजग बनायें।
राजभाषा के अनुदान में,
छोर-पोर से डंका बजायें।
उनके अनुसार, राजभाषा की उन्नति से ही मानव की उन्नति संभव है-
भावों से अंकुर पल्लवित होगा,
अमृत जल भर मेह बरसेगा।
राजभाषा के बढ़ते चरण से,
मानव अभ्युदय का जागरण होगा।
डाॅ. मयंक राजभाषा को राष्ट्र का अभिन्न अंग मानते हैं-
राजभाषा राष्ट्र का अभिन्न अंग,
वाणी और भावों का गठबंधन।
अनेक भाषाओं में सर्वोपरि,
जिज्ञासा की ये विरफरित किरन।
वे भारत में अभारतीय भाषाओं की समाप्ति और राजभाषा के यत्र-तत्र-सर्वत्र, प्रचार-प्रसार के लिए तत्पर दिखाई देते हैं-
राजभाषा कहूँ तुझे,
या कहूँ भारत की आत्मा।
प्रतीक्षा की घड़ी कब आयेगी,
होगा जब, अन्य भाषा का खात्मा।
इसके अलावा वे राजभाषा की उन्नति के लिए प्रयासरत रहने वाले विद्वानों को सम्मानित करने पर भी बल देते हैं-
राजभाषा में जो हैं निगुण
उन्हें प्रोत्साहन मिले उत्थान का।
राजकाज के कठोर परिश्रम से,
नाम मिले उन्हें सम्मान का।
वे चाहते हैं कि राजकाज का समस्त कार्य राजभाषा में ही पूर्ण हो, जो भी व्यक्ति इसकी उपेक्षा करे उसे अनुशासनहीन करार दिया जाये-
राजकाज का ये वातावरण,
राजभाषा में ही पूर्ण हो।
इसकी करे जो उपेक्षा,
अनुशासनहीनता का आदेश हो।
राजभाषा की उन्नति के लिए वे शोध-कार्य को महत्वपूर्ण बताते हैं और चाहते हैं कि देश का प्रत्येक नागरिक राजभाषा को अपनाए-
नूतन भाव से शोध कर,
प्रचार हो आदर्शता का।
हर नागरिक के मुख में
नाम हो बस, राजभाषा का।
इस प्रकार स्पष्ट है कि डाॅ. मयंक ने अपने काव्य में राजभाषा के रूप में हिंदी की स्थिति का न सिर्फ यथार्थ चित्रण किया है, वरन् शोध-कार्य का विकल्प सुझाकर उसकी उन्नति का मार्ग भी बताया है। साथ ही वे राजभाषा के प्रति समर्पित विद्वानों, साहित्यकारों को सम्मान दिलाने के पक्ष में भी हैं।
वर्तमान में राजभाषा के रूप में हिंदी की स्थिति में निरंतर सुधार होता दिखाई दे रहा है। यह हिंदी के सुखद भविष्य की ओर संकेत करता है। डाॅ. जयंतीलाल नौटियाल की ‘राजभाषा भारती’ में प्रकाशित शोध रिपोर्ट ‘हिंदी एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा है’ के अनुसार, विश्व में हिंदी जानने वाले लोगों की कुल संख्या 1300 मिलियन है। इस प्रकार डाॅ. जयंतीलाल नौटियाल के शोध से स्पष्ट हो चुका है कि हिंदी विश्व की प्रथम और लोकप्रिय भाषा है। यह हमारे लिए गर्व का विषय है।
आइये हिंदी दिवस के अवसर पर हम भी राष्ट्रभाषा हिंदी हेतु आजीवन समर्पित होने का संकल्प लें-
हिंदी पढ़ें, हिंदी लिखें, हिंदी बोलें।
हिंदी का रस निज जीवन में घोलें।
संदर्भ सूची-
1. अनोखे रंग धरणी के संग, सी.एस. तोमर, दून द्रोण आदिम विकास मिति, देहरादून, 1999
2. विविध रंग कविता के संग, डाॅ. चंद्र सिंह तोमर ‘मयंक’, आमावाला अपर, नालापानी, देहरादून, 2011
3. वैचारिकी, सितंबर-अक्टूबर, 2014, भाग-30, अंक-5
4. ज्ञान-विज्ञान बुलेटिन, मार्च, 2015, वर्ष-11, अंक-3
– डॉ. पवनेश ठकुराठी