उभरते-स्वर
ट्रेन की खिड़की
ट्रेन की खिड़की से देखता हूँ
हर एक पल में बदलती,
कोसती किसी को,
इतराती मटकती किसी पर,
किसी साये को हक़ीक़त-सी
हक़ीक़त को सपने-सी
गुज़ारती, बिगाड़ती ज़िन्दगी।
एक लम्हे में ठहरती
ट्रैन की माफ़िक ज़िन्दगी,
ब्रेक की तरह
पटरी से बंदगी
ठेले के सामानों पर
एक अरसे से जमी धूल-सा
मैं भी रुका था
पर पास की पटरी पे दौड़
पड़ी थी बेलगाम ज़िन्दगी।
उसी पटरी पर दिखा
एक लाल सिग्नल दूर से
कुछ सूझता फिर झिझकता
पहले ही टूटी तन्द्रा
माफ़ करना,
मुझे यहाँ से आगे जाना था
झकझोर दिया मुझे, ले आयी
फिर से रुकी ट्रेन में ज़िन्दगी।
कुली की कमर के टेढ़ेपन में
भूखे बच्चे की अंतड़ियों के
अनगिनत सिकुड़न में,
हाथ फैलाते उस मरीज
के हाथों की लकीरो में,
अमीरों की उँगलियों में
खेलती इतराती
न जाने ट्रेन की खिड़की से
‘राही’ क्या दिखाती ज़िन्दगी।
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बाकी है
बीती है बस एक घड़ी
एक अरसा बाक़ी है
एक लम्हे की चाहत में
काफ़ी कुछ बाक़ी है।
अमिट स्याही वक़्त की
कहती यूँ जाती है
फिर फिर फ़ुरसतें जी ले तू
कुछ जीवन बाक़ी है।
ज़ंजीर समझ जकड़ा जिसमें
वो पाशें खुल भी जाती हैं
ज़ोरे-जफ़ा तू रुका है क्यूँ
कुछ गाँठें बाक़ी है।
लफ़्ज़ों में दबी है ख़ामोशी
सब कुछ बयां कर जाती है
रह-रह के उठती हैं टीसें
चुभन काँटों की बाक़ी है।
सफ़र हो चला मीलों का
पत्थर मील का मिला नहीं
कुछ और कदम फ़िर बस ‘राही’
कुछ राहें बाक़ी है।
– जगदीश बिश्नोई राही