जो दिल कहे
टूटते रिश्तों में दरार
(अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस)
येन केनचि वण्णेन पितु दुक्खं उदब्बहे, / मातु भागिणिया चापि अपि पाणेहि अत्तनि।(‘महावेस्सन्तर’ पाली जातक कथा) अर्थात् माँ, बहिन और पिता का दुःख जैसे भी हो दूर करना चाहिए! यह तभी संभव है जब परिवार के सारे लोग परिवार की तरह रहें, एक संयुक्त परिवार की तरह। जहां मत-भेद तो हों, पर मन-भेद नहीं।
परन्तु, कहीं पढ़ा था कि- ‘भीड़ है क़यामत की और हम अकेले हैं…’ धीरे-धीरे उसी अकेलेपन के आदी हो गए। जमाने भर के संबंधों, दोस्त-यारों के साथ समय व्यतीत करते कब हम अकेले हो गए हमें पता ही नहीं चला।
परिवार की महत्ता से कोई भी इंकार नहीं कर सकता। रिश्तों के ताने-बाने और उनसे उत्पन्न मधुरता, स्नेह और प्यार का सम्बल ही परिवार का आधार है। परिवार एकल हो या संयुक्त, पर रिश्तों की ठोस बुनियाद ही उन्हें ताजगी प्रदान करती है। आजकल रिश्तों को लेकर मातृ दिवस, पिता दिवस और भी कई दिवस मनाये जाते हैं, पर आज इन सबको एकीकार करता हुआ ”अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस” मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका ने 15 मई 1994 को ‘अंतर्राष्ट्रीय परिवार वर्ष’ घोषित किया था। 1995 से यह सिलसिला जारी है।
फ़िलहाल, भूमंडलीकरण और सूचना क्रांति के इस दौर में परिवार का दायरा बढ़ रहा है, पर भावनाएँ सिमटती जा रही हैं। परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। वस्तुत: ‘अंतरराष्ट्रीय परिवार दिवस’ परिवारों से जुड़े मसलों के प्रति लोगों को जागरुक करने और परिवारों को प्रभावित करने वाले आर्थिक, सामाजिक दृष्टिकोणों के प्रति ध्यान आकर्षित करने का महत्वपूर्ण अवसर प्रदान करता है।
एक तरफ जहाँ परिवार के लोगों की वैयक्तिक जरूरतों के साथ सामूहिकता का तादात्मय परिवार को एक साथ रखने के लिए बेहद जरूरी है, वहीँ परिवार और काम के बीच का संतुलन भी उतना ही महत्वपूर्ण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि किसी भी व्यक्ति के लिए उसका परिवार बहुत महत्वपूर्ण होता है। व्यक्ति के जीवन को स्थिर और खुशहाल बनाए रखने में उसका परिवार बेहद अहम भूमिका निभाता है।
परिवार सबसे छोटी इकाई है। यह सामाजिक संगठन की मौलिक इकाई है। परिवार के अभाव में मानव समाज के संचालन की कल्पना भी दुष्कर है। प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी परिवार का सदस्य रहा है या फिर है। उससे अलग होकर उसके अस्तित्व को सोचा नहीं जा सकता है। हमारी संस्कृति और सभ्यता कितने ही परिवर्तनों को स्वीकार करके अपने को परिष्कृत कर ले, लेकिन परिवार संस्था के अस्तित्व पर कोई भी आंच नहीं आई। वह बने और बन कर भले टूटे हों लेकिन उनके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है। उसके स्वरूप में परिवर्तन आया और उसके मूल्यों में परिवर्तन हुआ लेकिन उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। हम चाहे कितनी भी आधुनिक विचारधारा में हम पल रहे हो लेकिन अंत में अपने संबंधों को विवाह संस्था से जोड़ कर परिवार में परिवर्तित करने में ही संतुष्टि अनुभव करते हैं। भारत ‘गाँवों का देश है’, ‘परिवारों का देश है’। परिवार शब्द हम भारतीयों के लिए अत्यंत ही आत्मीय होता है।
अथर्ववेद में परिवार की कल्पना करते हुए कहा गया है- ”अनुव्रत: पितु: पुत्रो मात्रा भवतु संमना:। जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्॥’ अर्थात पिता के प्रति पुत्र निष्ठावान हो। माता के साथ पुत्र एकमन वाला हो। पत्नी पति से मधुर तथा कोमल शब्द बोले।
परिवार कुछ लोगों के साथ रहने से नहीं बन जाता। इसमें रिश्तों की एक मज़बूत डोर होती है, सहयोग के अटूट बंधन होते हैं, एक-दूसरे की सुरक्षा के वादे और इरादे होते हैं। हमारा यह फर्ज है कि इस रिश्ते की गरिमा को बनाए रखें। हमारी संस्कृति में, परंपरा में पारिवारिक एकता पर हमेशा से बल दिया जाता रहा है। परिवार एक संसाधन की तरह होता है। परिवार की कुछ अहम ज़िम्मेदारियाँ भी होती हैं। इस संसाधन के कई तत्व होते हैं। दूलनदास ने कहा है- ”दूलन यह परिवार सब, नदी नाव संजोग। उतरि परे जहं-तहं चले, सबै बटाऊ लोग॥’
जैनेन्द्र ने इतस्तत में कहा है, परिवार मर्यादाओं से बनता है। परस्पर कर्तव्य होते हैं, अनुशासन होता है और उस नियत परम्परा में कुछ जनों की इकाई हित के आसपास जुटकर व्यूह में चलती है। उस इकाई के प्रति हर सदस्य अपना आत्मदान करता है, इज़्ज़त ख़ानदान की होती है। हर एक उससे लाभ लेता है और अपना त्याग देता है”।
आज विश्व भर में एकल परिवार की बयार चल पड़ी है। बच्चे बड़े होकर नौकरी क्या करने लगते हैं, उन्हें खुद के लिए थोड़ा स्पेस चाहिए होता है और वह स्पेस उन्हें लगता है अलग रहकर ही मिल पाता है। महानगरों में तो अब खुद मां-बाप ही बच्चों को नौकरी और शादीशुदा होने के बाद अलग परिवार रखने की सलाह देते हैं। लेकिन अकेला रहने की एवज में समाज को काफी कुछ खोना पड़ रहा है। परिवार से अलग रहने पर बच्चों को ना तो बड़ों का साथ मिल पा रहा है जिसकी वजह से नैतिक संस्कार दिन ब दिन गिरते ही जा रहे हैं और दूसरा, इससे समाज में बिखराव भी होने लगने लगता है। आजकल के एकल परिवार में पति-पत्नी को लगता है कि वह अपने बच्चे की परवरिश खुद सही ढंग से कर पाएंगे जो कई मायनों में गलत भी नहीं है लेकिन जो बात बड़े बुजुर्गों के साथ पल-बढ़कर प्राप्त होती है वह अलग ही है। महानगरों में बच्चों का नैतिक विकास बहुत कम हो रहा है और समाज में नैतिकता के पैमाने घटते जा रहे हैं। समाज में घटती नैतिकता के दुष्परिणाम हम सबके सामने हैं ही।
महानगरों में बच्चों के पालन-पोषण के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, उनमें हैसियत का तत्त्व सबसे ऊपर होता है। लेकिन उसमें जो आभिजात्य फार्मूले अंगीकार किए जाते हैं, किसी बच्चे के एकांगी और अकेले होने की बुनियाद वहीं पड़ जाती है। आज यह वक्त और समाज की एक बड़ी और अनिवार्य जरूरत मान ली गई है कि एक आदमी एक ही बच्चा रखे। एकल परिवार के दंपत्ति इस बात को लेकर बेपरवाह रहते हैं कि वे अपने छोटे परिवार के दायरे से निकल कर बच्चों को अपना समाज बनाने की सीख दें। काम के बोझ से दबे-कुचले माता-पिता डेढ़ साल के बच्चे को ‘कार्टून नेटवर्क’ की रूपहली दुनिया के बाशिंदे बना देते हैं। बच्चे के पीछे ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़े, इसलिए उसके भीतर कोई सामूहिक आकर्षण पैदा करने के बजाय उसकी ऊर्जा को टीवी सेट में झोंक देते हैं। फिर दो-तीन साल बाद उसके स्कूल के परामर्शदाता से सलाह लेने जाते हैं कि बच्चा तो टीवी सेट और मोबाइल के सामने से हटता ही नहीं और पता नहीं कैसी बहकी-बहकी कहानियाँ गढ़ता है।
वह ऐसा क्यों नहीं होगा? उसकी दुनिया को समेटते हुए क्या हमें इस बात का भान भी हो पाता है कि हमने उसे इस दुनिया से कैसे काट दिया। होश संभालते ही जिस बच्चे को अपने साथी के रूप में ‘टॉम-जेरी’ और ‘डोरेमॉन’ मिला हो, वह क्यों नहीं आगे जाकर अपने मां-बाप से भी कट जाएगा? स्कूल जाने से पहले मां-बाप छोटे बच्चों को सलाह देते हैं कि अपनी पेंसिल किसी को नहीं देना, अपनी बोतल से किसी को पानी नहीं पीने देना। हम नवउदारवादी मां-बाप बच्चे को पूरे समाज से काटते हुए बड़ा बनाते हैं। उसके पास अपना कहने के लिए सिवा अपने मां-बाप के अलावा और कोई नहीं होता। और जब वही मां-बाप साथ छोड़ देते हैं तो वह अपने को निहायत बेसहारा महसूस करने लगता है। अपने घर की चारदीवारी को ही अपनी जीवन की सीमा का अंत मान लेता है। महानगरों में ऐसे अकेले लोगों की पूरी फौज खड़ी हो रही है जो रहते तो ‘सोसायटी’ में हैं, लेकिन अरस्तू की परिभाषा के मुताबिक ‘सामाजिक प्राणी’ नहीं हैं। यानी मनुष्य होने की पहली शर्त खो बैठे हैं।
– नीरज कृष्ण