ज़रा सोचिए
टूटते एकल परिवार: एक विकट समस्या
– डॉ. विदुषी शर्मा
आज मेरा मन बहुत परेशान है। मैं यह सोचने पर मजबूर हूँ कि आज हर तीसरा परिवार सिंगल पैरेंट बनता जा रहा। क्यों?
पहले संयुक्त परिवार का चलन होता था। बच्चे अपने बड़ों के सानिध्य में महफूज़ होते थे। जाने-अनजाने में वे कितने ही संस्कार, त्याग-भावना, सामंजस्य करना, बांटना (चाहे वह प्यार हो या अपनी प्रिय वस्तु) रूठना, मनाना, झुकना और अपना आत्मसम्मान भी बनाए रखते हुए आपस में मेलजोल से रहना और उसे बनाए रखना। एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र करना आदि। ये सब ऐसी बातें हैं, जो बच्चा सिर्फ परिवार में ही सीख सकता है एवं समाज में इन सब बातों का निर्वहन उसे आजीवन करना है। जब परिवार ही नहीं होगा तो न वो किसी से झगड़ा करेगा। न बाँटना सीखेगा। न प्यार से, प्यार में झुकना सीखेगा, न सामंजस्य ही सीख पाएगा क्योंकि वह यह सब किसके साथ करे? कौन है उसका साथी? यह सब निर्जीव खिलौने, मोबाइल, टी.वी. या फिर डे केयर जहाँ वो रहता है? वहाँ चाहकर भी इन बातों का, इन भावनाओं का उपस्थित होना नामुमकिन है क्योंकि एक व्यावसायिक कार्य है। जहाँ बात व्यवसाय की हो जाती है, वहाँ भावनाएं नदारद हो जाती हैं।
अब हम बात करते हैं न्यूक्लियर फैमिली की। कुछ समय पहले इसका चलन हुआ क्योंकि यह सब समय की माँग थी। अपने परिवार से दूर, माता-पिता या बच्चों को शहर में आजीविका और पढ़ाई हेतु रहना ही पड़ता है। परंतु अब कुछ समय से तो यह चलन होता जा रहा है कि परिवार में केवल एक ही बच्चा है तो भी माता-पिता में अलगाव हो रहे हैं, तलाक हो रहे हैं और बच्चा अपने रिश्तेदार के यहाँ रह रहा है, चाहे वह मौसी हो, बुआ हो या दादी नानी हो। उसे माता- पिता दोनों का साथ नहीं मिल पा रहा। क्यों?
यहाँ पर यह बात मुझे बहुत दु:ख देती है, क्या कुसूर है उस बच्चे का, जिसकी सजा उसे अकेले रहने पर मजबूर कर रही है?
एक माँ होने के नाते मैं उस बच्चे की भावनाओं को दिल से महसूस कर सकती हूँ। उस पर क्या बीत रही होगी, और सच पूछो तो इन्हीं भावनाओं ने ही मुझे इस मुद्दे पर कुछ लिखने पर मजबूर किया है। मैं भी एक औरत हूँ, एक गृहिणी हूँ, एक माँ भी हूँ। आज मैं एक सवाल आज की नारी से करना चाहती हूँ कि क्यों वे अपने परिवार को बचाकर नहीं रख पा रही हैं? मैं यह भी जानती हूँ कि सबकी पारिवारिक स्थिति एक जैसी नहीं होती और ना सारा कुसूर पुरुष जाति का है और ना ही पूरा कुसूर स्त्री जाति का। परंतु घर तो नारी को ही बनाना है ना, और नारी जाति को प्रकृति ने पुरूष से 4 गुणा अधिक सहन शक्ति प्रदान की है। लज्जा नारी का ही आभूषण है, माँ बनने का सौभाग्य भी नारी को ही प्राप्त है। फिर क्यों हम पुरुषों से मुक़ाबला करें? हम तो उनसे श्रेष्ठ हैं, और रही बात अपने आपको साबित करने की, तो वह तो हम कई बार कर चुकी हैं, तो फिर टकराव क्यों? क्यों एक खुशहाल परिवार को तोड़ा जा रहा है?
कारण चाहे जो भी हो परंतु क्या हम अपने बच्चों के लिए, अपने अहं का, अपने स्वार्थ का, थोड़ा-सा त्याग नहीं कर सकते? अपने बच्चों के भविष्य के लिए थोड़ा-सा झुक नहीं सकते? यह बात मैं दोनों के(स्त्री-पुरूष) परिप्रेक्ष्य में कहना चाह रही हूँ कि अपने टकराव को छोड़कर, अपने बच्चों के लिए अपनी गृहस्थी को बचाकर रखने का भरसक प्रयास करें। भारत में नहीं है सिंगल पैरेंट का चलन और अगर सिंगल पैरेंट ही बच्चों के लिए पर्याप्त होता तो ईश्वर स्त्री और पुरूष दोनों की रचना नहीं करते। विवाह जैसे पवित्र बंधन का चलन नहीं होता। इसलिए बच्चों के लिए माता-पिता दोनों ही बराबर आवश्यकता लिए हुए हैं।
अतः मेरा निवेदन है कि आप अपनी बेटियों (बच्चों) को परिवार की अहमियत समझाएं, अपनी उन्नति के साथ-साथ अपनी मर्यादाएं, अपनी सीमाएं भी बताएं क्योंकि एक भारतीय नारी अपनी नारी सुलभ नार्यत्व के साथ ही अधिक आकर्षक लगती है। चंचलता, शालीनता, त्याग, धैर्य, जोड़ना, सहनशीलता आदि गुणों का होना अच्छा है, जो हमारी भारतीयता की पहचान है। इसलिए समाज में अपने स्थान को प्राप्त करने के साथ-साथ अपने परिवार को बचाए रखने की जिम्मेदारी निभानी है नारी को, जिसमें पुरुष को भी उसका साथ देना होगा ताकि भविष्य में हमारे बच्चों का बचपन खुशहाल हो। वह अपने घर का राजा बने न कि किसी के घर पर ‘बेचारा’।
यह बहुत बड़ी बात है। आप इस स्थिति को महसूस करके देखिए। ऐसे बच्चों के जीवन में एक खालीपन रह जाता है, जो किसी भी चीज़ से भरा नहीं जा सकता। बच्चे अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं पाते हैं, पर वो अंदर ही अंदर सब समझते हैं। किसी और के घर में रहते हुए बाल सुलभ चंचलता, वो ज़िद, वो लाड, वो अपनापन, वो हक, धीरे-धीरे सब खत्म हो जाता है। रह जाती है तो सिर्फ (हाँ जी) ‘आज्ञा’ जिसका कि उसको पालन करना ही पड़ता है।
और यदि वह माता या पिता, दोनों में से किसी एक के साथ भी रहता है तो भी कभी न भरने वाला एकाकीपन उसके जीवन में घर कर लेता है और समय के साथ-साथ यदि उसके माता या पिता को किसी दूसरे जीवन साथी की ज़रूरत महसूस होती है और वह ऐसा कर ही लेते हैं तो इसके बाद की स्थिति का अंदाज़ा आप स्वयं ही लगा सकते हैं।
इसलिए अपने बच्चों पर यह परिस्थिति न आने दें। अपने परिवार को बचाएं, अपने बच्चों के बचपन को बचाएं, उनके भविष्य को बचाएं। थोड़ा-सा झुक जाएं, थोड़ा-सा समझ से थोड़ा-सा तालमेल बैठाने का प्रयास करें।
– डॉ. विदुषी शर्मा