दोहा छंद
झूल झूल सखि गा रही, किशन बजावत झाल।
राधा रानी दे रही, ढोलक पर सुर ताल।।
पीली पीली साड़ियां, चुनरी सबकी लाल।
घेरे सब सखियाँ खड़ीं, पिया बजावत गाल।।
सुन सखि सावन आ गया, डारो झूला आज।
पैंग मार हम उड़ चले, पिया बजाएं साज।।
बादल भी सब उड़ चले, पिया न आये पास।
खुशियाली तो हर जगह, मनवा मोर उदास।।
सूरज बोला रात से, आना नदिया पास।
घूँघट ओढ़े मैं मिलूँ, मिल खेलेंगे रास।।
पीड़ा वो ही जानता, खाए जिसने घाव।
पाटन दृग रिसते रहे,कोय न समझा भाव।।
नदिया धीरे बह रही, पुरवइया का जोर।
चाँद ठिठोली कर रहा, चला क्षितिज जिस ओर।।
सगरे जन ज्ञानी भये, चेला भया न कोय।
खुद को जो पहचान ले, निर्भय हो कर सोय।।
धर्म संग अधर्म तुला, बढ़ा पाप का भार।
पलड़ा डगमग जब हुआ, गयी तराजू हार।।
– प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा