इधर नव वर्ष ने मुस्कान की पहली किरण बिखेरी ही थी कि इस पर अंग्रेजियत का ठप्पा लगाकर आपत्ति दर्ज़ होने लगी। जब सारे सरकारी, गैर-सरकारी कामकाज इन्हीं तिथियों और समय के आधार पर तय है तो ऐसे में यह विरोध बचकानेपन के प्रमाण के अतिरिक्त और क्या है? वैसे भी सब इसे मनाकर प्रसन्न ही तो हो रहे हैं, इसमें किसी का क्या नुकसान? आजकल के व्यस्त और त्रस्त जीवन में ये त्योहार और तारीख़ें अगर थोड़ी राहत और मुस्कुराने का अवसर देते हैं तो ऐसे हर पर्व का स्वागत होना चाहिए। विश्वबंधुत्व का भाव रखने वाले देश में इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि कौन सा उत्सव कहाँ का है! शुभ दिन उल्लास देते हैं, कुछ लेते नहीं किसी से! इन्हें पूरी तरह दिल से मनाये जाने में कोई हर्ज़ नहीं! हमारी परम्पराएँ और प्रथाएं अपनी जगह सुरक्षित हैं और सदैव संरक्षित भी रहेंगी। हाँ, नए साल के संकल्प अवश्य टूटेंगे क्योंकि अच्छे काम के लिए किसी दिन की प्रतीक्षा नहीं होती।
मनुष्य की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि कोई कार्य टालना हो या उसे न करने के बहाने ढूंढने हो तो वह अपनी ही याचिका को खारिज़ कर, अगली तारीख़ तय कर देता है। और जब अपनी मर्ज़ी से कुछ करना होता है तो दिन-रात जागकर, जमीन-आसमान एक कर देता है लेकिन उस काम को संपन्न करने के बाद ही उसे चैन मिलता है। हम सब इस तथ्य को अच्छे से जानते-समझते हैं फिर भी संकल्प के लिए सोमवार या नए साल की राह देखते हैं।नतीज़तन ऐसे अधिकतर मामलों में परिणाम शून्य ही देखने को मिलता है।
नव-वर्ष, नया दिन, साल का प्रथम दिन, नई शुरुआत, पर किसकी? जीवन वही, लोग वही, समाज वही, जीने की शर्तें वही, सोच वही, कुंठाएं वही…..माह भी वही और उनमें शामिल दिनों की गिनती भी? उफ़्फ़… वही! तो इस ‘नव-वर्ष’ में उम्मीद किससे? आप भी तो वही हो, पुराने!
नई आशाएं, नई उमंगें, नई तरंगें, नए सपने, फिर से कुलबुला रहे न? थामो स्नेह से, आज की पहली सुबह का पहला स्वप्न! पर अब आँखें खोलकर एक कोशिश तुम्हारी भी होनी चाहिए।
छोड़ो ग्रहों का चक्कर, न कोसो क़िस्मत को, जला दो इन कुंडलियों को जो बैठीं हैं हर जगह अपना फन उठाये!
वर्ष कुछ नहीं कर पाता कभी, करना होगा हमें ही!
बदलनी होगी सोच तो बदलेगा रवैया, दिखेगा परिवर्तन समाज में!
कम होंगीं कुंठाएं, थोड़ा आसान जीवन, कुछ खुशनुमा शर्तें, थोड़ी मुस्कान,थोड़ी और ज़िन्दगी
‘बस कर्म का ही अर्थ है, हर अपेक्षा व्यर्थ है’
मानसिक, भावनात्मक संक्रमणों से निकल आगे चलना होगा, समय उन्हीं को देना होगा जिन्हें आपके समय की क़द्र है, रिश्तों पर अंधविश्वास नहीं सिर्फ़ विश्वास करना होगा, सबको क्षमा कर गलतियों के दलदल से बाहर निकलना होगा, नकारात्मकता के घनघोर अँधेरे से निकल अपनी सकारात्मकता को भरपूर आत्मविश्वास, दृढ़ता, सच्चाई और ह्रदय में स्नेह के साथ पुनर्जीवित करना होगा, और फिर होतें ही रहेंगे, जाने कितने ‘साल मुबारक़’…..मेरे, तुम्हारे, हम सबके!
खुश रहें, खुशियाँ बाटें!
दुःख का खरीददार यहाँ कोई नहीं!
इन दिनों ‘विश्व पुस्तक मेले’ की भी खूब धूम मची है। आयोजकों, रचनाकारों और प्रकाशन समूहों की पोस्ट ने सोशल साइट्स पर ख़ासी रौनक बढ़ाई है। इस तरह के कार्यक्रम भी एक माध्यम हैं जहाँ अनगिनत पुस्तकों और रचनाकारों का समागम देखने को मिलता है। ये आयोजन पाठक को रचनाकार के साथ सीधे संवाद का सुनहरा अवसर प्रदान करते हैं। जहाँ विमोचन, चर्चा एवं गोष्ठी लेखक और श्रोता दोनों की ही रचनात्मक शक्ति को और समृद्ध करते हैं, वहीँ इस बहाने आज की युवा पीढ़ी को गूगल की दुनिया से बाहर झाँकने का मौका भी मिलता है। हम जानते हैं कि पुस्तक सा विश्वसनीय और कोई साथी नहीं, ये एक शिक्षक की तरह जीवन पर्यन्त हमारा मार्ग प्रशस्त करतीं हैं। ऐसे में एक अच्छी पुस्तक का चुनाव करना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक समय था जब सोशल मीडिया के बिना भी लेखकों की अपनी साख थी, अब फिल्मों और सीरियलों की तरह यहाँ भी बहुत कुछ प्रायोजित दिखाई देता है। गुणवत्ता से ज्यादा पहुँच, चाटुकारिता और आर्थिक लाभ के लालच ने इस ‘व्यवसाय’ को भी संदेह के घेरे में ला खड़ा किया है। रचनाकारों को अपना मूल्यांकन स्वयं करना चाहिए साथ ही हर निष्पक्ष आलोचना( ये भी इन दिनों गुटबाज़ी का शिकार हो रही है) का भी खुले ह्रदय से स्वागत करना चाहिए। कुकुरमुत्तों की तरह पनपते नित नए प्रकाशन समूहों को भी इस बात को नजरअंदाज़ नहीं करना चाहिए कि आने वाली पीढ़ी इन्हें पढ़कर सीखेगी। तो बेहतर है वही भोजन परोसा जाए जो पौष्टिक हो! ये इनका कर्तव्य भी है और दायित्व भी।
जो प्रकाशक ईमानदारी और पूरी निर्भीकता के साथ अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए अब तक डटे हुए हैं वो सचमुच बधाई के पात्र हैं। उनसे यही कहना चाहूँगी कि अच्छे रचनाकारों के प्रचार-प्रसार में कोई कमी न आने दें और नए प्रतिभाशाली लेखकों को लेने में संकोच न करें। कुछ लोग वाक़ई शानदार लिख रहे हैं लेकिन ‘गॉडफादर’ के अभाव में या तो फेसबुक की दीवारों तक ही सीमित हैं या कुंठाग्रस्त हो अपनी खुन्नस निकालने में लगे हैं। इन्हें मौका दीजिये और प्रचार भी। विज्ञापन का ज़माना है, वरना इतनी बेइज़्ज़त हो निकाली गई ‘मैगी’ की ऐसी धमाकेदार वापिसी (जी, हाँ ऑनलाइन बुकिंग हो रही थी इसकी) नहीं होती! काश, भारतीय थाली का भी कोई शानदार विज्ञापन बनता तो आज सारे बच्चे उछलते-कूदते ‘रोटी, रोटी, रोटी….’ गा रहे होते! कभी-कभी अखरता है और आश्चर्य भी होता है कि क़िताबों के लिए कभी कोई ‘विज्ञापन’ क्यों नहीं आता? आशा है कि आने वाले समय में इस दिशा में जरुरी क़दम अवश्य उठाये जाएँगे और ये अन्य उत्पादों की तरह भ्रामक नहीं होंगे।
जनवरी का महीना संक्रांति और पतंग का भी महीना है। कृषक अपनी अच्छी फसल के लिये ईश्वर को धन्यवाद देकर उत्सव मनाते हैं इसलिए मकर संक्रान्ति को किसानों का त्योहार भी कहा जाता है। इससे कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। यह दान का पर्व भी है। इस दिन मूंगफली, तिल, गुड़ की बनी खाद्य वस्तुओं का सेवन किया जाता है। कहते हैं सूर्य के मकर राशि में प्रवेश करने के कारण इस पर्व को मकर संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है. और इसके साथ ही अंधकार का नाश व प्रकाश का आगमन होता है। उम्मीद करते हैं कि हमारे किसान भाइयों और सारे देश के लिए यह दिन तमाम खुशियाँ लाये, शुभ हो और उनके जीवन में नया उजाला भर दे। इन दिनों पतंग उड़ाने का अपना ही मज़ा है, कई प्रतियोगिताएँ भी आयोजित की जाती हैं। विजेता बनने की आस लिए प्रतियोगी कांच लगा मांजा प्रयुक्त करते हैं जिसके कारण अनगिनत पक्षी घायल होते हैं और कितने ही अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। जहाँ इंसानी जीवन की अहमियत भी अब दो कौड़ी की रह गई है, वहाँ इन बेजुबानों की फ़िक्र कौन करे। पर हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि आसमान पर पहला हक़ उन्हीं का है। इसलिए उनका ख़्याल रखना ही होगा।
पठानकोट एयर बेस पर हुए हमले ने हम सबको झकझोरकर रख दिया है। एक बार फिर हमने पडोसी मुल्क़ पर विश्वास ही नहीं बल्कि अपने जांबाज़ सिपाही भी खो दिए हैं। नमन एवं श्रद्धासुमन हमारे अमर शहीदों को। पूरा देश इन्हें और इनके परिवार को सलाम करता है और इस दुःख की घडी में उनके साथ खड़ा है। सरकार और विपक्ष से अनुरोध है कि अब इस तरह की घटनाओं की निंदा के साथ-साथ, जिम्मेदार पक्ष को क़रारा जवाब देने की दिशा में भी विचार किया जाए। आख़िर हम कब तक हाथ-पे-हाथ धरे बैठे रहेंगे? शांतिप्रिय होना अच्छी बात है पर अन्याय को सहते रहना, कमजोर होने का संकेत भी मान लिया जाता है।
‘जो जितना झुकता गया, उतना टूटता गया’
‘गणतंत्र दिवस’ की शुभकामनाओं के साथ, जनवरी 2016 का यह अंक आप सभी को समर्पित।
– प्रीति अज्ञात