यात्रा वृत्तांत
जैसलमेर: ख़ूबसूरत मनभावनी धरोहर
जोधपुर दर्शन के बाद हम निकलते हैं वाया पोखरन रोड़ होते हुए। रास्ते में इस संपूर्ण इलाके की यात्रा के दौरान बहुत से छोटे-छोटे गाँव मिले। ये मरुभूमि अपने रेतीले टीलों, नागफनियों, केर, करीलों से जितना तपा रही थी, वहीं उससे इतर बीच में साथ-साथ हरियाले खेत मन को सुकून भरी ठंडक से सहला रहे थे। इन्हीं रास्तों में छोटे दुर्ग भी हैं, जिन्हें अब हैरिटेज होटलों में बदल दिया गया है। आप रुक कर देख सकते हैं। इस रास्ते की ख़ासियत ने मन मोह लिया क्योंकि इस डगर एकदम मक्खन जैसी, सपाट, साफ-सुथरी सड़क थी। डम्बर की काली चमकती लहराती नागिन जैसी।
हम लोगों ने सड़क किनारे गाड़ी रोककर बहुत मस्ती की, तस्वीरें लीं, हल्के स्नैक्स जो साथ ले गये थे खाये। बस आप भी पानी की व्यवस्था पूरी रखें। रोड अच्छी होने से जल्दी ही टाप लिये और जैसलमेर में प्रवेश किया और वहाँ हमने बड़ा बाग रोड़ पर ‘राजा बृजराज सिंह भाटी’ का मेहमानख़ाना कन्वर्टेड हैरिटेज होटल ‘जवाहर निवास’ में रहने का इंतजाम किया।
आपको बता दूँ कि नेट सर्च में यहाँ एक दिन का दस से ग्यारह हजार है पर आप यहाँ आकर बात करेंगे तो काफी रीजनेबल स्टे मिल जायेगा आपको। पर कहना ग़लत नहीं कि यदि आप रॉयल स्टे के शोकीन हैं तो ये जगह वर्थी है। शाम के वक़्त इत्तिफाकन राजा जी अपने किसी मित्र को लेकर आये तो सौभाग्य मिला उनसे रूबरू होने और बातचीत का। उनके कहने पर हम लोगों के लिये कडाके की ठंड में बड़े कढाहों में बोनफायर का इंतजाम भी किया गया।
हम सबने वहाँ की ट्रेडीशनल पोशाक पहने बैरों की रंग-बिरंगी पगड़ियाँ लीं और अपने सिरों पर धरकर बहुत शैतानियाँ कीं और तस्वीरों में क़ैद किया। उन सबके चेहरों की ख़ुशी हमारे साथ और मस्ती से सहज व सरल हो गयी थी, जिसका एक अलग आनंद था, सच्ची।
मुझे अगली सुबह कुछ विलुप्त होती चिड़ियों की तस्वीरें निकालने का अवसर भी मिला। ये जल्दी जागने के फ़ायदे भी होते हैं मित्रो!
सुबह हमें निकलना था यहाँ की शान और अपना मनमीत ‘सोनार किला’ देखने, नाश्ता करके होटेल से हम निकल लिये, ऊपर तिकोनी पहाड़ी वाले, पीली बालू और पीले पत्थरों से बने इस भव्य दुर्ग को देखने।
विशाल गुंबद, कंगूरों, नक्काशियों दार ये किला ‘राव जैसल’ ने बनवाया था। इसकी उत्कृष्टता इसका तीन तरह का वास्तु है और इस विशाल किले में ही सैनिकों के आवास, व्यापारियों के निवास, मंदिरों का समागम और परकोटे, झूलती फारसी कंगूरेदार बालकनियाँ…क्या-क्या बताऊँ इस सोनार मनमीत के बारे में। यहाँ आना मतलब यात्रा सफल होना है। इसकी भव्यता और कला अपने इतिहास का चिट्ठा स्वयं खोल देती है। प्रमुख मुगल शासकों का लालच है ये दुर्ग।
यदि आप फोटोग्राफी के शौकीन हैं तो बहुत से रील खाली होंगे आपके यहाँ और इतिहास पढ़ने के शौकीन तो किले में ही पुरातन संग्रह समेटे एक पुस्तकालय भी है। कुल मिलाकर कहूँ तो हमें सारा दिन हो गया यहाँ, दिल भर ही नहीं रहा था इसके गलियारों में चहलकदमी से।
जैसलमेर संकरी गलियों वाला, हवेलियों, दुछत्तियों, कंगूरों वाला ऐसा शहर है कि आप पैदल यात्रा के ज़रिये आनंद के सागर में डुबोयेगा। इसकी सांस्कृतिक भाव-भंगिमाएँ आपके घुमक्कड़ स्वभाव को तृप्त कर देंगी।
रात्रि के समय बत्ती जलते ही दीवारों पर प्रकाश पड़ते ही सोनार किला सोने-सा दमकता है और मेरे जैसों, मतलब घूमने और लिखने-पढ़ने के शौकीनों के लिये ये लोकेशन तो रमा देने वाली है। घंटों इसके सानिध्य में रात में दिन किया जा सकता है। ख़ैर, यहाँ के तिलिस्म से निकल कर हम आउटकट्स पर राजा बृजराज सिंह के आम और आँवले के बगीचे भी देखने गये और रात्रि वापिस जवाहर निवास। अगले दिन जैसलमेर के लोकल बाज़ार घूमे और सुवेनियर कलेक्ट किये।
शाम को प्रोग्राम था ‘सैंड ड्यून्स’ थार का सनसेट देखने का। हम अपनी रामप्यारी गाड़ी द्वारा हार्डली बीस मिनिट में सैंड ड्यून्स (सैंड्यूज) पहुँच गये थे। रास्ते में अनेक लक्जूरियस टैंटों की व्यवस्था थी पर हमने बुक नहीं किया क्योंकि वापिस जवाहर निवास ही आना था। आप इन वातानुकूलित टैंटों में रात रुककर सांस्कृतिक कार्यक्रमों व राजस्थानी भोजन का लुत्फ़ ले सकते हैं। यहाँ मज़ेदार रहा एकदम बॉर्डर पर आकर ऐसा लगा कि सरहद पार पाकिस्तान के किसी गाँव में हैं, वहाँ लोगों का पहनावा और रख-रखाव यही भ्रम दे रहा था। और सबसे मज़ेदार तो वो इकलौता अनुभव जिसमें कि- आँखों के आगे सिर्फ़ हम चार लोगों के लिये छप्पर के ढा़बेवाले ने आलू और पत्तागोभी की रसेदार सब्जी हमारे आगे ही बनाई क्योंकि वहाँ सेब टमाटर की सब्जी ही अवेलेबल थी तो मुंडू घर भेजकर उन्होंने हम लोगों के लिये पत्तागोभी मंगवाया और तुरंत छौंका। और संग में ये मोटे-मोटे गरम टिक्कड़, जिनके संग कॉम्प्लीमेंट्री पतला बूँदी का लंबे ग्लास भर के सर्राटा(रायता)। कसम से वापिस गीली पत्तागोभी फिर कभी नहीं खाई और उसका स्वाद व लज़्ज़त भूले नहीं। ठूँस के पेट-पूजा कर के निकले रेगिस्तान की तरफ पैदल ही पैर धंसाते, लुढ़कते रेता में। संग ही संग वहाँ लोकल गाने बजाने वालों के साथ ठुमके भी खूब लगाये रेत में। बच्चों-सी हरकतें करीं जैसे रेत में गिरते पड़ते दौड़, वगैरह।
रेगिस्तान में दूर तक सवारी की ऊँट की और बहुत प्यारा नज़ारा देखा सूर्यास्त का। कैमरे ने भी बहुत इंजोय किया लोकल नज़ारों और टोलियों का। सनसैट के बाद दोस्तो! यहाँ के ऊँट यकबयक ही तेज़ी से दौड़ लगाकर वापसी लेते हैं सड़क किनारों की तरफ। ये अंदाज़ा शायद उन्हें सालों से पड़ी आदत की वजह से होता होगा।
सनसेट के बाद हम भी एक टैन्ट की ओर आये। बाकायदा राजसी ठाठ वाला, तिलक और फूलों से स्वागत हुआ हमारा और वेलकम ड्रिंक में दूधवाला रूहअफ़जा़, मस्त गरम पोहे मिले। फिर सबकी पसंदों वाले पेयों के साथ घरानों के लोक संगीत से महफ़िल शुरू हुई सांस्कृतिक कार्यक्रम की। विशाल गोल चबूतरे पर कुर्सियों, गद्दियों और कुशन की व्यवस्था थी, बीचों-बीच अलाव जल रहा था।
कालबेलिया और बंजारे करतबों, घूमर की झलकी सबके बीच एक नर्तकी खींच ले गयी बीच में और फिर बन गये हम भी लोकल राजस्थानी जम के बिना झिझक नाचे। इससे प्यारी शाम क्या हो सकती थी बेहिचक, बेखौफ ठुमके और कैमरे की बरजोरी फोटो और वीडियो सब बनाये।
कार्यक्रम के बाद उन सबको कुछ शगुन उपहार स्वरूप दिया और साथ ही टिपिकल राजस्थानी डिनर दाल-बाटी, चूरमा, केर-सांगरी, गट्टा, रोटला से तृप्त हुए और निकल लिये वापिस देर रात शहर की तरफ हम बंजारे।
सपाट अंधियारी लहरियादार सड़क पर एक संतुष्टि व मुस्कुराहट के साथ प्यार भरी। जैसलमेर मन में सदा को बसा लाई हूँ। सुबह हमें वापिस जयपुर निकलना था तो अगली सवारी आपको वहीं ले चलने के वादे के साथ यहीं विश्राम लेती हूँ।
– प्रीति राघव प्रीत