आलेख
जूठन: एक विमर्श
– धर्मवीर
दलित साहित्याकाश के ज्योतिपुंज ओमप्रकाश वाल्मीकि का नाम उल्लेखनीय है। इन्होंने दलित साहित्य की बुनियादी नींव को तैयार किया। वर्तमान समय में विमर्शों पर मुख्यतः संवाद होने लगा है। जैसे- दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, पारिस्थितिकी विमर्श, किसान विमर्श आदि जो कि परिस्थिति अनुकूल समीचीन भी है।
दलित से तात्पर्य है कि जिसे अपने अधिकारों से वंचित रखा गया हो। ‘दलित’ शब्द का अर्थ है- जिसका दलन और दमन हुआ हो। दलित लेखक कंवल भारती लिखते हैं- “दलित वह है जिस पर अस्पृश्यता का नियम लागू किया गया हो। जिसे कठोर और गंदे काम करने के लिए बाध्य किया गया। वह जिसे शिक्षा से वंचित और स्वतंत्र व्यवसाय करने से मना किया गया हो।”1
नब्बे के दशक से दलित साहित्य का आविर्भाव माना जाता है। ‘हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली’ के अनुसार- ‘दलित साहित्य’ से अभिप्राय उस साहित्य से है, जिसमें दलितों ने स्वयं अपनी पीड़ा को वाणी दी है। अपने जीवन संघर्ष में दलितों ने जिस यथार्थ को भोगा है। दलित साहित्य उनकी उसी अभिव्यक्ति का दस्तावेज़ है।
दलित साहित्य में सबसे लोकप्रिय विधा आत्मकथा रही है। ‘जूठन’ ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा है, जिसमें उन्होंने अपनी संघर्ष भरी जिंदगी को हमारे सामने प्रस्तुत किया है। ‘जूठन’ में दु:ख-दर्द, पीड़ा, संघर्ष का एक संसार फैला हुआ है।
सही मायने में ‘जूठन’ को दलित साहित्य का मर्मान्तक दस्तावेज़ भी कहा जा सकता है। ‘जूठन’ आत्मकथा को निम्नलिखित आधारों पर समझ सकते हैं-
1. शिक्षा व्यवस्था
‘जूठन’ में पहला पड़ाव शिक्षा व्यवस्था का ही है। लेखक को शिक्षा के लिए संघर्ष करना पड़ता है। सवर्णों द्वारा दलितों को शिक्षा से वंचित करने की हर संभव कोशिश की जाती है। इसमें शिक्षा के प्रति समाज एवं गांव के नकारात्मक रवैये को उजागर किया गया है।
आजादी से पहले ईसाई मिशनरियों ने पहले-पहल दलितों के लिए शिक्षा के द्वार खोले, जिसकी वजह से दलितों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई थी। वाल्मीकि जी लिखते हैं कि “हमारे मोहल्ले में एक ईसाई आते थे। नाम था सेवकराम मसीही। चुहड़ों के बच्चों को घेरकर बैठे रहते थे। पढ़ना-लिखना सिखाते थे। सरकारी स्कूल में तो कोई घुसने नहीं देता था।”2 कहा जा सकता है कि दलितों की स्थिति में सुधार ईसाई मिशनरियों की वजह से आया।
लेखक के पिताजी उनको सरकारी स्कूल में प्रवेश दिलाने के लिए अथक प्रयास करते हैं। वाल्मीकि जी लिखते हैं– वहाँ मास्टर हरफूल सिंह थे। उनके सामने मेरे पिताजी ने गिड़गिड़ाकर कहा था- मास्टर जी, थारी मेहरबानी हो जागी जो म्हारे इस जाकत (बच्चा) कू बी दो अक्षर सिखा दोगे। दलित बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना स्कूल में आम बात होती है। वह भी बिना किसी वजह से जैसा कि जूठन में देखने को मिलता है। अन्य जगह लिखते हैं- “अध्यापकों का आदर्श रूप जो मैंने देखा, वह अभी तक मेरी स्मृति में से मिटा नहीं। अध्यापक स्कूल में माँ-बहन की गालियाँ देते थे। सुंदर लड़कों के गाल सहलाते थे।”3 स्कूल में हेडमास्टर ओमप्रकाश वाल्मीकि को दलित होने के कारण झाड़ू बनवाकर स्कूल की सफाई करवाते थे। सभी का व्यवहार दलितों के प्रति नकारात्मक रहा। गाँव के लोगों के संवाद- चुहड़ें का बच्चा पढ़ सकता है? अगर पढ़ भी लिया तो करेंगे क्या? क्या हो जाएगा? दलित होने के कारण लेखक को रसायन विज्ञान की प्रायोगिक में फेल कर दिया जाता है। उसके बाद वे अध्ययन के लिए बरला से देहरादून जाते हैं। यह उनकी चेतना निर्माण का निर्णायक दौर रहा।
2. जातीय प्रताड़ना
‘जातीय प्रताड़ना’ देश की अनूठी समस्या है। अमानवीयता इसका गुण है और शोषण इसका उद्देश्य। वाल्मीकि जी अपने मित्र के साथ मास्टर बृजलाल के घर उनके लिए गेहूं लाने जाते है। उनका ठीक से आदर सत्कार होता है किंतु जैसे ही उनके चूहड़ा होने का पता चलता है तो मेहमानवाजी करने वाले ही गालियों की बौछार करते हुए हाथापाई पर उतर आते हैं। अंबरनाथ में प्रशिक्षण के दौरान ओमप्रकाश की मि. कुलकर्णी से अच्छी बनती है किंतु यहाँ भी कुलकर्णी परिवार समझ बैठा था की ओमप्रकाश वाल्मीकि ब्राह्मण है। कुलकर्णी के घर में कांबले के लिए अलग से चाय का कप। जाति से दलित होने के कारण वाल्मीकि जी स्कूल में हैण्डपम्प से पानी नहीं पी सकते थे। इसी कारण स्कूल में शिक्षकों और सवर्णों द्वारा शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना सहनी पड़ती थी। एक बार वाल्मीकि जी पत्नी के साथ राजस्थान भ्रमण से वाया दिल्ली-चंद्रपुर (महाराष्ट्र) पिंकसिटी एक्सप्रेस से लौट रहे थे। “पास की एक सीट पर संभ्रांत परिवार बैठा था। उनसे पत्नी का वार्तालाप होता है। इसके बीच जाति का सवाल पूछा जाता है। वाल्मीकि उत्तर दिया, ‘भंगी’। ‘भंगी’ शब्द सुनते ही सन्नाटा छा गया।”4 रास्ते भर दोनों परिवारों में कोई संवाद नहीं हुआ। जाति वह विष है, जो इंसान के मन में नफरत पैदा करता है और एक-दूसरे को संदेह की निगाह से देखना आरंभ करती है। जाति का पता चलने से पूर्व सारे इंसान और उनके व्यवहार सहज-सरल हैं किंतु जाति का पता चलते ही, वे दो गुटों में विभाजित होते है।
3. गरीबी
अर्थाभाव दलित जीवन की दयनीय वास्तविकता है। वाल्मीकि के शब्दों में, “घर में सभी कोई न कोई काम करते थे, फिर भी दो-जून की रोटी ठीक ढंग से नहीं चल पाती थी।”5 इस आत्मकथा में रोटी की समस्या की ओर इशारा किया गया है। वाल्मीकि जी लिखते हैं- “शादी-ब्याह के मौकों पर, जब मेहमान या बाराती खाना खा रहे होते थे तो चूहड़े दरवाजे के बाहर बड़े-बड़े टोकरे लेकर बैठ जाते थे, बारात के खाना खा चुकने पर जूठी पत्तलें उन टोकरों में डाल दी जाती थीं, जिन्हें घर ले जाकर वे जूठन इकट्ठी कर लेते थे।”6 दलितों को जीवन यापन करने के लिए अनेक विषम परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। वे जूठन से एकत्रित पुरियों को सुखाकर रखते थे। भूख लगाने पर पानी में भिगोकर खाते थे। उन पर मिर्च और नमक डालकर खाने में बड़ा मजा आता था। वे आगे बताते है कि उनके पास कॉलेज जाने के कपड़े भी नहीं थे। उन्हें कॉलेज में जसबीर की एक पुरानी पैंट से काम चलाना पड़ता था, जो कि नाप से ढीली थी।
‘जूठन’ में मकान की समस्या और भी भयानक है। 1962 के साल में खूब बारिश हुई थी बस्ती में सभी घर कच्ची मिट्टी के बने थे। “हमारा घर जगह-जगह से टपकने लगा था। जहाँ टपकता वहाँ खाली बरतन रख देते थे।”7 हर वक्त एक डर-सा बना रहता था- कब कोई दीवार धसक जाए। मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है– रोटी, कपड़ा और मकान। दलित समाज इन्हीं मूलभूत चीजों से वंचित है।
4. वातावरण
ओमप्रकाश वाल्मीकि का बचपन बड़े ही विभत्स माहौल में बीता। लेखक लिखते हैं कि “चारों तरफ गंदगी भरी होती थी। ऐसी दुर्गंध कि मिनिट भर में साँस घुट जाए। तंग गलियों में घूमते सूअर, नंग-धड़क बच्चे, कुत्ते, रोजमर्रा के झगड़े बस, यह था वह वातावरण जिसमें बचपन बीता। इस माहौल में यदि वर्ण-व्यवस्था को आदर्श व्यवस्था कहने वालों को दो-चार दिन रहना पड़ जाए तो उनकी राय बदल जाएगी।”8 इनमें समाज में व्याप्त अंधविश्वासों/रूढ़ियों को दिखाया है। शिक्षा के प्रति उदासीनता पूर्ण समाज को चित्रित किया है। स्कूल में मनुवादी अध्यापकों के रवैये को दिखाया है। जीवन के सुख-सुविधा और तमाम नागरिक सहूलियतों से वंचित दलित जीवन की त्रासदी उनके व्यक्तिगत वजूद से लेकर घर-परिवार, बस्ती और सामाजिक व्यवस्था तक फैली हुई है।
5. अस्पृश्यता
‘जूठन’ में अस्पृश्यता की समस्या भी देखने को मिलती है। लेखक के शब्दों में– “अस्पृश्यता का ऐसा माहौल कि कुत्ते-बिल्ली, गाय-भैंस को छूना बुरा नहीं था लेकिन यदि चुहड़े का स्पर्श हो जाए तो पाप लग जाता था।”9 सामाजिक स्तर पर इंसानी दर्जा नहीं था। वे सिर्फ जरूरत की वस्तु समझे जाते थे। काम पूरा होते ही उपयोग खत्म। इस्तेमाल करो, दूर फेंकों। स्कूल में हैंडपंप से दलित बच्चे पानी नहीं पी सकते थे और कुलकर्णी के घर पर दलित व्यक्ति के लिए अलग से चाय के कप की व्यवस्था। ‘जूठन’ के ये प्रसंग मानवता को तार-तार कर रहे हैं।
6. अंधविश्वास और रूढ़ियाँ
ओमप्रकाश वाल्मीकि जिस समाज और परिवेश से हैं। वहाँ के लोग अज्ञानी और अंध श्रद्धालु हैं। उनके यहाँ पर हर समस्या का समाधान गंडा-ताबीज या पशु बलि माना जाता था। “भूत-प्रेत की छायाओं के प्रति पूरी बस्ती में अजीब माहौल था। ज़रा भी किसी की तबीयत खराब होती तो डॉक्टर के बजाय किसी भगत को बुलाया जाता था।”10 एक बार वे बीमार थे। उनकी दवा-दारु चल रही थी। उसी समय उनके यहाँ एक रिश्तेदार आए जो भगत थे। उन्होंने कहा कि इसे तो ओवरा (भूत की लपेट) है। थोड़ी देर वह जमीन पर बैठा और अचानक हिलने लगा और भूत उतारने के लिए ओमप्रकाश को पीटने लगा। भगत की मार से आहत होकर वे चिल्लाने लगे- मुझे जान से मार डालेगा, यह। इसे रोको मुझे भूत-वूत कुछ नहीं चिपटा है। उनके चिल्लाने से भगत शांत हुआ और चला गया। उनका चिल्लाना अंधविश्वास पर गहरी चोट है।
ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ढोंग-पाखंड का विरोध करते हैं। शादी के समय सूअर की बलि दी जाती थी। उसके लिए ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने साफ मना कर दिया। ‘सलाम’ प्रथा सवर्णों के दरवाजों पर जाकर ‘सलाम’ (माथा नवाना) का विरोध लेखक ने अपने भाई जसेवर की शादी में किया। उसे सलाम के लिए नहीं भेजा। इसके लेखक के पिता जी कहते हैं- ‘तुम्हें पढ़ाना सफल हो गया।’ समाज में व्याप्त गलत धारणाओं का खुलकर विरोध करते हैं।
7. स्त्रियों की स्थिति
सवर्ण स्त्री उर्चस्ववादी पुरुष मानसिकता का शिकार है, जिसने उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को उभरने नहीं दिया। लेकिन दलित स्त्री परिवार और अपने समाज में स्वतंत्र है। स्वतंत्र होते हुए भी परतंत्र है। दलित स्त्री होने के नाते पुरुष मानसिकता की सारी परेशानियों को वह उठाती है साथ ही दलित होने के दुख भी सहती है। सवर्ण स्त्री का शोषण चार दीवारों के भीतर होता रहा है, दलित नारी के शोषण की कोई पारावार नहीं। ‘जूठन’ में दलित स्त्री के विरोध-रूप को भी दिखाया गया है। साथ ही लेखक की पढ़ाई के लिए उनकी भाभी का आभूषण का त्याग। यह कदम सराहनीय है।
“हमारी बिरादरी में विधवा-विवाह को प्रारंभ से ही मान्यता थी। हिंदू परंपराओं की तरह विधवा-विवाह हीन दृष्टि से नहीं देखा जाता था।”11 दलित समाज में विधवा को पुन: विवाह करने का अधिकार था। दलित स्त्री स्वतंत्र होती है फिर भी उसे गाँव में, खेत में, शहर में दलित स्त्री होने के कारण प्रताड़ित करते रहते हैं।
8. ग्रामीण और शहरी जीवन में द्वंद
गाँवों का स्थिर वातावरण दलित शोषण, उत्पीड़न के लिए अनुकूल वातावरण है शायद इसी कारण सवर्ण समाज को गाँव अधिक सुरक्षित और आदर्शवत लगते हों। वाल्मीकि जी का जन्म ग्रामीण क्षेत्र में हुआ। ग्रामीण परिवेश उनके सीने पर ऐसे घाव किए है, जिसकी दास्तान दर्द से भरी हुई है। गाँव का पूरा वातावरण भेदभाव ग्रस्त रहा है। गाँव के तगा दलितों का स्वार्थ हेतु उपयोग करते है, उनसे बेगार करवाते हैं। किंतु मनुष्य के रूप में स्वीकारने के लिए तैयार नहीं हैं। सामाजिक स्तर पर इंसानी दर्जा नहीं मिला। गाँव के सवर्णों की मानसिकता दलितों की शिक्षा के विरुद्ध है।
शहरी जीवन से वाल्मीकि के जीवन में अमूल परिवर्तन आए। उनका शहर जाना चेतना निर्माण का निर्णायक दौर रहा। शहर में डॉ. अंबेडकर साहित्य से परिचय हुआ। अंबेडकर के जीवन-संघर्ष ने झकझोर कर रख दिया। शहर में भी जाति अपने पैर फैलाए हुए है। इसका उदाहरण- कुलकर्णी है। आज हम कैसी दुनिया का निर्माण कर रहे है? हमें सोचने को ‘जूठन’ विवश करती है।
9. कामकाजी क्षेत्र और प्रेम में जाति
दलितों को ऐसा पेशा दिया गया, जो हीन हो, मरे हुए पशुओं की खाल उतारने और बेचने का। दलित हीनता ग्रस्त हों। वे कभी सवर्णों के बराबर न आ सके। सवर्ण दलितों को काम के लिए उपयोग करते हैं। एक रोज लेखक के पिता की अनुपस्थिति में ओमप्रकाश वाल्मीकि को उनकी माँ ने खाल उतारने के लिए चाचा के साथ भेजा। वहाँ चाचा के साथ उन्हें भी खाल उतारनी पड़ी। उसके बाद बेचने भी जाना पड़ा। दलित समाज श्रमशील रहा है।
जाति के आगे प्रेम भी विफल हो जाता है- इसकी कहानी ‘जूठन’ में उल्लेखनीय है। कुलकर्णी का परिवार वाल्मीकि जी को ब्राह्मण समझता है। यह समझकर सविता वाल्मीकि से प्रेम करने लग जाती है। फिर एक दिन ओमप्रकाश वाल्मीकि अपनी ‘जाति’ के बारे में सविता को बताते हैं, जिससे सविता बहुत आहत होती है। उसे फिर कभी नहीं आने का कहती है। फिर वे कभी नहीं मिलते। किस प्रकार प्रेम में भी ‘जाति’ बाधा बन जाती है।
अतः ओमप्रकाश वाल्मीकि जी ने जाति- उत्पीड़न का जीवंत चित्रण अपनी आत्मकथा के माध्यम से प्रस्तुत किया है। भारतीय समाज के यथार्थ को चित्रित किया है। मनुष्य-मनुष्य के बीच नफरत घृणा एवं भेदभाव को मिटाना है तो समाज में समानता और बंधुत्व की भावना को जागृत करना होगा। मानवतावादी समाज का निर्माण करना दलित साहित्य का उद्देश्य है। ‘जूठन’ के लेखक के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लेनी चाहिए। दलित समाज के उत्थान के लिए शिक्षा ही महत्वपूर्ण हथियार है।
सन्दर्भ–
1. हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली- डॉ. अमरनाथ, पृ.- 173
2. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 2
3. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 14
4. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 162
5. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 11
6. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 19
7. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 31
8. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 11
9. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 12
10. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 37
11. जूठन (पहला खंड)– ओमप्रकाश वाल्मीकि, पृ.- 22
– धर्मवीर